जीवन के मानव रूप में एक पुरुष और स्त्री संभोग के इंद्रिय सुख के लिए मिलन करते हैं.

जैसा कि प्रह्लाद महाराज द्वारा कहा गया है, यं मैथुनादि-ग्रह्मेधि-सुखम हि तुच्छम्. पुरुष और स्त्री दोनों ही यौन सुख खोजते हैं, और जब वे विवाह के आनुष्ठानिक समारोह द्वारा एक हो जाते हैं, तो वे कुछ समय के लिए सुखी रहते हैं, लेकिन अंततः मतभेद होता है और इसलिए अलगाव और तलाक के इतने प्रसंग घटित होते हैं. यद्यपि प्रत्येक पुरुष और स्त्री संभोग के माध्यम से जीवन का आनंद लेने के लिए वास्तव में लालायित रहते हैं, उसका परिणाम विरोध और अवसाद ही होता है. विवाह का सुझाव पुरुषों और स्त्रियों को प्रतिबंधित यौन जीवन के लिए छूट देने के लिए दिया जाता है, जिसका सुझाव भगवान के परम व्यक्तित्व के द्वारा भगवद-गीता में भी दिया गया है. धर्मविरुद्धो भूतेषु कामोस्मि: वह यौन जीवन जो धर्म सिद्धांतों के विरुद्ध नहीं होता वह कृष्ण है. प्रत्येक जीव हमेशा यौन जीवन का सुख प्राप्त करने के लिए लालायित होता है क्योंकि भौतिकवादी जीवन में खाना, सोना, यौन और भय शामिल होता है. पशु जीवन में, खाने, सोने, यौन सुख और भय को विनियमित नहीं किया जा सकता, किंतु मानव समाज के लिए योजना यह होती है कि यद्यपि मनुष्यों को, पशुओं के जैसे, खाने, सोने, यौन सुख और भय से सुरक्षा प्राप्त करने की अनुमति दी जानी चाहिए, किंतु उन्हें विनियमित किया जाना चाहिए. खाने के लिए वैदिक योजना सुझाव देती है कि व्यक्ति को यज्ञ-शिष्ट, या प्रसाद, जो कृष्ण को अर्पित किया जाता है, वह ग्रहण करना चाहिए. यज्ञ-शिष्टसिनः संतो मुच्यंते सम-किल्बिसैः : “भगवान के भक्तों को सभी प्रकार के पापों से मुक्त कर दिया जाता है क्योंकि वे उस भोजन को खाते हैं जो पहले प्रसाद के रूप में अर्पित किया जाता है.” (भगी. 3.13). भौतिक जीवन में, व्यक्ति पापमय कर्म करता है, विशेषकर खाने में, और पापमय गतिविधियों के कारण व्यक्ति प्रकृति के नियमों द्वारा एक और शरीर स्वीकार करने के लिए अभिशप्त होता है, जिसे दण्ड के रूप में लागू किया जाता है. संभोग और खाना आवश्यक हैं, और इसलिए वैदिक नियमों के अधीन उन्हें मानव समाज को दिया गया है ताकि वैदिक प्रतिबंधों के अनुसार लोग खा सकें, सो सकें, संभोग सुख ले सकें, और भय से सुरक्षित रखे जा सकें और धीरे-धीरे उनका उत्थान हो सके और भौतिक अस्तित्व के दण्ड से मुक्त हो सकें. इस प्रकार विवाह के लिए वैदिक प्रतिबंध मानव समाज को छूट देते हैं, विचार यह है कि एक आनुष्ठानिक विवाह समारोह के माध्यम से एक हुए पुरुष और स्त्री को आध्यात्मिक जीवन में प्रगति के लिए एक दूसरे की सहायता करनी चाहिए. दुर्भाग्य से, इस युग में, पुरुष और स्त्री असीमित यौन सुख के लिए मिलन करते हैं. इस प्रकार वे अपनी पाशविक प्रवृत्ति की पूर्ति करने के लिए पशुओं का रूप लेने को बाध्य होकर, उत्पीड़ित होते हैं. इसलिए वैदिक आज्ञा चेतावनी देती है, नयम् देहो देह-भजम् नृलोके कष्टं कामं अर्हते विद्-भुजम् ये. व्यक्ति को शूकर के समान संभोग नहीं करना चाहिए और मल की सीमा तक सबकुछ नहीं खा लेना चाहिए. एक मानव को भगवान को चढ़ाया गया प्रसाद खाना चाहिए और वैदिक आज्ञा के अनुसार संभोग सुख लेना चाहिए. उसे कृष्ण चेतना के कार्य में लगना चाहिए, उसे स्वयं को भौतिक अस्तित्व की डरावनी अवस्था से बचाना चाहिए, और उसे केवल कठिन परिश्रम के कारण हुई थकान से उबरने के लिए ही सोना चाहिए.

 

स्रोत- अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, सातवाँ सर्ग, खंड 13 – पाठ 26