अन्य ग्रहों पर जीवन की अवधि
ब्रह्मा के दिन के अंत में होने वाले ब्रह्मांड का आंशिक विघटन सभी ग्रह प्रणालियों को प्रभावित नहीं करता है. ऋषि सनक और भृग जैसे उच्च ज्ञानी जीवों के ग्रह सहस्राब्दियों के विघटन से प्रभावित नहीं होते हैं. सभी ग्रह भिन्न प्रकार के हैं, और प्रत्येक का नियंत्रण एक भिन्न काल-चक्र, या शाश्वत समय के क्रम द्वारा किया जाता है. पृथ्वी ग्रह का समय अन्य, अधिक उच्च ग्रहों पर आरोपित नहीं होता है.
चार सहस्त्राब्दियाँ (युग) के नाम सत्य, त्रेता, द्वापर और कलि युग हैं. इन सभी के संयुक्त वर्षों की कुल संख्या देवताओं के बारह हज़ार वर्षों के बराबर है. देवताओं के वर्ष मानव जाति के 360 वर्षों के बराबर होते हैं. जैसा कि बाद के छंदों में स्पष्ट होगा, युग-संंध्या कहे जाने वाले संक्रमण काल सहित, देवताओं के 12,000 वर्षों में, उक्त चार सहस्त्राब्दियों का योग शामिल होता है. इस प्रकार उक्त चार सहस्राब्दियों का कुल योग 4,320,000 वर्ष है. सत्य सहस्त्राब्दि की अवधि देवताओं के वर्षों के 4,800 वर्षों के बराबर होती है; त्रेता युग की अवधि 3,600 वर्ष होती है; द्वापर युग 2,400 वर्षों के बराबर होता है; और कलि-युग देवताओं के 1,200 वर्षों के बराबर होता है. उपर्युक्त अनुसार, देवताओँ का एक वर्ष मानव के 360 वर्षों के बराबर होता है. इसलिए सत्य-युग की अवधि 4,800 x 360, या 1,728,000 वर्षों की होती है. त्रेता-युग की अवधि 3,600 x 360, या 1,296,000 वर्ष है. द्वापर-युग की अवधि 2,400 x 360, या 864,000 वर्ष है. और अंतिम, कलियुग, 1,200 x 360, या 432,000 वर्ष का है.
प्रत्येक सहस्त्राब्दि के पहले और बाद के संक्रमण काल, जो पहले बताए गए अनुसार कुछ सौ वर्षों के होते हैं, अनुभवी खगोलविदों के अनुसार वे युग-संध्या, या दो सहस्त्राब्दियों की संधि कहलाते हैं. उन अवधियों में सब प्रकार की धार्मिक गतिविधियाँ की जाती हैं. सत्य सहस्राब्दी में, धार्मिक सिद्धांतों का पूर्ण निष्पादन प्रबल रहा. धीरे-धीरे, बाद के प्रत्येक युग में धर्म के सिद्धांत एक-एक करके घटते गए. दूसरे शब्दों में, वर्तमान में एक भाग धर्म है और तीन भाग अधर्म. इसलिए इस युग में लोग बहुत प्रसन्न नहीं हैं. तीन ग्रह प्रणालियों (स्वर्ग, मर्त्य और पाताल) के बाहर, एक सहस्त्र गुणा चार युगों में ब्रम्हा के ग्रह का एक दिन सम्मिलित होता है. इसके समान अवधि में ही ब्रम्हा की एक रात्रि होती है, जिसमें ब्रम्हांड के रचियता सोने चले जाते हैं. जब ब्रम्हा उनके रात्रि काल में सोने चले जाते हैं, तब ब्रम्हलोक के नीचे के तीनों ग्रह मण्डल विनाश के जल में डूब जाते हैं. अपनी सोई अवस्था में, ब्रम्हा गर्भोदकशायी विष्णु के बारे में स्वप्न देखते हैं और विनष्ट हुए अवकाश के क्षेत्र के पुनर्वासन के लिए भगवान से निर्देश लेते हैं.
ब्रम्हा की रात्रि के अंत के बाद, तीनों लोकों की रचना ब्रम्हा के दिन में फिर से आरंभ होती है, और वे एक के बाद एक चौदह मनुओं, या मानवजाति के पितृों के जीवन काल की अवधि तक अस्तित्व में बने रहते हैं. प्रत्येक मनु के जीवन के अंत में छोटे विघटन भी घटित होते हैं. मनु के जीवन काल में विष्णु पुराण में वर्णित चार सहस्राब्दियों के इकहत्तर समूह शामिल होते हैं. एक मनु के जीवन काल की अवधि देवताओं की गणना में लगभग 852,000 वर्ष होती है, या, मानवों की गणना में 306,720,000 वर्षों की होती है. प्रत्येक मनु के विघटन के बाद, अगला मनु अपने वंशजों के साथ आता है, जो विभिन्न ग्रहों पर शासन करते हैं; लेकिन सात प्रसिद्ध संत, और इंद्र जैसे देवता और गंधर्वों जैसे उनके अनुयायी, भी मनु के साथ-साथ प्रकट होते हैं. ब्रह्मा के एक दिन में चौदह मनु होते हैं, और उनमें से प्रत्येक के भिन्न-भिन्न वंशज होते हैं. सृष्टि में, ब्रह्मा दिवस के दौरान, तीन ग्रह प्रणालियां- स्वर्ग, मर्त्य और पाताल – घूमती हैं, और वहां के निवासी, जिनमें निचले स्तर के प्राणी, मानव, देवता और पिता शामिल होते हैं, अपनी गतिविधियों के फल के अनुसार प्रकट होते हैं और विलीन हो जाते हैं. मनु के प्रत्येक परिवर्तन में, भगवान का सर्वोच्च व्यक्तित्व अपनी आंतरिक शक्ति को प्रकट करके मनु और अन्य जैसे विभिन्न अवतारों का रूप लेता है. इस प्रकार वह खोज की शक्ति द्वारा ब्रह्मांड को बनाए रखता है. दिन के अंत में, तीनों संसारों का विघटन अंधकार के अवतार, रुद्र, से प्रभावित होता है, जिनका प्रतिनिधित्व अनंत काल की अग्नि करती है जो तीनों लोकों में व्याप्त है. इन तीनों लोकों को भुः, भुवः और स्वः (पाताल, मर्त्य और स्वर्ग) के नाम से जाना जाता है. असंख्य जीवित प्राणी उस विघटन में विलीन हो जाते हैं, जो सर्वोच्च भगवान की ऊर्जा के दृश्य के पटाक्षेप जैसा लगता है, और इस प्रकार सब कुछ शांत हो जाता है. ऐसा माना जाता है कि तीनों लोकों से सूर्य और चंद्रमा की चमक मिट जाती है, लेकिन स्वयं सूर्य और चंद्रमा नहीं मिटते. वे ब्रह्मांड के शेष भाग में दिखाई देते हैं, जो तीनों लोकों के क्षेत्र से परे है. विघटन वाला भाग सूर्यकिरणों या चंद्रमा की कांति से रहित होता है. वह सब अंधकारमय और जलप्लावित रहता है, और वहाँ अथक वायु प्रवाह बना रहता है. विघटन संकर्षण के मुख से निकलने वाली अग्नि के कारण घटित होता है, और इसलिए, नीचे तीनों लोकों में भभक रही अग्नि के ताप से व्याकुल होकर, भृगु जैसे महान ऋषि और महार्लोक के अन्य निवासी स्वयं को जनलोक में स्थानांतरित कर लेते हैं. एसा कहा जाता है कि संकर्षण के मुख से भभक रही अग्नि देवताओं के एक सौ वर्षों, या मानव के 36,000 वर्षों तक प्रज्ज्वल रहती है. फिर अगले 36,000 वर्षों तक मूसलाधार वर्षा होती है, जिसके साथ प्रचंड हवा और लहरें आती हैं, और सागर और महासागर उफनने लगते हैं. लोग इस सारे विऩाश को भूल जाते हैं और सभ्यता की भौतिक प्रगति में स्वयं को खुशहाल मानने लगते हैं. इसे ही माया कहा जाता है, “वह जो नहीं है.” समय के संदर्भ में प्रत्येक प्राणी विभिन्न ग्रहों में विभिन्न प्राणियों के लिए एक सौ वर्षों के लिए जीवित रहता है. जीवन के ये एक सौ वर्ष प्रत्येक प्रसंग में समान नहीं होते. एक सौ वर्षों की सबसे लंबी अवधि ब्रम्हा की होती है, लेकिन ब्रम्हा के बहुत लंबे जीवन के बावजूद, वह समय के साथ समाप्त हो जाता है. ब्रम्हा को भी अपनी मृत्यु से भय लगता है, और इसलिए वे स्वयं को मायावी शक्ति के चंगुल से छुड़ाने के लिए भगवान की आध्यात्मिक सेवा करते हैं. पशुओं को निश्चित ही उत्तरदायित्व का बोध नहीं होता, लेकिन मनुष्य भी, जो भगवान की आध्यात्मिक सेवा में रत हुए बिना अपने अमूल्य समय को गँवा कर, उत्तरदायित्व का बोध विकसित कर चुके हैं; वे आसन्न मृत्यु से डरे बिना प्रसन्न होकर जीते हैं. यह मानव समाज का पागलपन है. किसी विक्षिप्त के लिए जीवन में कोई उत्तरदायित्व नहीं होता. उसी प्रकार, कोई मनुष्य जो अपनी मृत्यु से पहले उत्तरदायित्व का बोध विकसित नहीं करता, वह उस विक्षिप्त मनुष्य से श्रेष्ठ नहीं है जो भविष्य की चिंता किए बिना प्रसन्न होकर भौतिक जीवन का आनंद लेने का प्रयास करता है. यह आवश्यक है कि स्वयं को आगामी जीवन के लिए तैयार करने हेतु प्रत्येक मनुष्य उत्तरदायी बने, भले ही उसका जीवन काल ब्रम्हांड के महानतम जीवित प्राणी ब्रम्हा जितना लंबा हो.
स्रोत:अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2012 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवत” तृतीय सर्ग, अध्याय 11 – पाठ 16-33.