कृष्ण अपने शिष्य अर्जुन से कहते हैं, कि “केवल वासना ही है… जो सब कुछ खा जाने वाली, संसार की पापमयी शत्रु है.” [भगी. 3.37] वैदिक भाषा में भौतिकवादी “प्रेम” के लिए कोई शब्द नहीं है, जैसा कि हम वर्तमान समय में कहते हैं. काम शब्द वासना या भौतिक इच्छा का वर्णन करता है, न कि प्रेम का, लेकिन वास्तविक प्रेम के लिए वेदों में जो शब्द हमें मिलता है, वह प्रेम है, जिसका अर्थ है ईश्वर का प्रेम. भगवान के इतर प्रेम की कोई संभावना नहीं है. बल्कि, केवल वासना है. तत्व के इस वातावरण में, मानव के कर्मों की संपूर्ण श्रंखला-और केवल मानव की ही सभी गतिविधियाँ नहीं बल्कि सभी प्राणियों के कर्म-काम वासना, पुरुष और स्त्री के आकर्षण, पर आधारित हैं, प्रोत्साहित हैं और प्रदूषित हैं. उसी यौन जीवन के लिए, पूरा ब्रह्मांड चारों ओर घूम रहा है-और दुख उठा रहा है! वह कठोर सत्य है. यहाँ तथाकथित प्रेम का अर्थ है कि “तुम मेरी इंद्रियों को तृप्त करते हो, मैं तुम्हारी इंद्रियों को तृप्त करूंगा,” और जैसे ही वह संतुष्टि बंद हो जाती है, तुरंत तलाक, अलगाव, झगड़ा और घृणा होने लगती है. प्रेम की इस झूठी अवधारणा के तहत बहुत सी बातें चल रही हैं. वास्तविक प्रेम का अर्थ है भगवान, कृष्ण का प्रेम.

हर व्यक्ति किसी ऐसे पात्र में अपनी प्रेममयी प्रवृत्ति को स्थापित करना चाहता है जिसे वह अपने योग्य समझता है. लेकिन प्रश्न केवल अज्ञानता का है, क्योंकि लोगों को इस बारे में कम ज्ञान है कि उस परम प्रेम पात्र को कहाँ खोजा जाए जो स्वीकार करने योग्य हो और उनके प्रेम का उत्तर देता हो. लोगों को बस पता नहीं होता. कोई भी उचित जानकारी नहीं है. जैसे ही आपको किसी भौतिक वस्तु से लगाव हो जाता है, वह आपको आघात पहुँचाती है, आपका क्षरण करती है, और निराश करती है. आपको अंसुष्ट और निराश करना ही उसकी नियति है.

भौतिक चेतना में हम उसे प्रेम करने का प्रयास करते हैं जो प्रेम करने योग्य है ही नहीं. हम कुत्तों और बिल्लियों को प्रेम देते हैं, जिससे जोखिम रहता है कि मृत्यु के समय हम शायद उनके बारे में सोचें और परिणामस्वरूप बिल्लियों या कुत्तों के परिवार में जन्म लें. इस प्रकार जिस प्रेम में कृष्ण नहीं है नीचे की ओर ले जाता है. ऐसा नहीं है कि कृष्ण या भगवान कोई अस्पष्ट वस्तु या कुछ ऐसा है जिसे केवल कुछ चुने हुए लोग ही प्राप्त कर सकते हैं. चैतन्य महाप्रभु हमें सूचित करते हैं कि प्रत्येक देश में और प्रत्येक शास्त्र में भगवान के प्रेम के कुछ संकेत मिलते हैं. दर्भाग्य से कोई भी यह नहीं जानता कि भगवान का प्रेम वास्तव में क्या है. हालाँकि, वैदिक शास्त्र इससे अलग हैं क्योंकि वे व्यक्ति को भगवान से प्रेम करने का उचित ढंग बताते हैं. अन्य शास्त्र इस बात की जानकारी नहीं देते हैं कि कोई व्यक्ति भगवान से किस प्रकार प्रेम कर सकता है, और न ही वे वास्तव में परिभाषित करते हैं या वर्णन करते हैं कि वास्तव में भगवान क्या है या कौन हैं. हालाँकि वे आधिकारिक रूप से भगवान के प्रेम को बढ़ावा देते हैं, लेकिन उन्हें यह ज्ञान नहीं है कि इसे क्रियान्वित कैसे किया जाए.

वृंदावन में कृष्ण और गोपियों के बीच के प्रेम प्रसंग भी पारलौकिक हैं. वे इस भौतिक संसार के साधारण प्रसंगों के जैसे ही दिखाई देते हैं, लेकिन उनमें बहुत बड़ा अंतर है. भौतिक संसार में वासना का अस्थायी जागरण हो सकता है, लेकिन तथाकथित संतुष्टि के बाद वह गायब हो जाती है. आध्यात्मिक संसार में गोपियों और कृष्ण के बीच प्रेम लगातार बढ़ रहा है. यही पारलौकिक प्रेम और भौतिक वासना के बीच का अंतर है. इस शरीर से उत्पन्न वासना, या तथाकथित प्रेम, शरीर के समान ही अस्थायी है, लेकिन आध्यात्मिक संसार में अनन्त आत्मा से उत्पन्न होने वाला प्रेम आध्यात्मिक स्तर पर होता है, और यह प्रेम शाश्वत भी है. इसलिए कृष्ण को सदाबहार कामदेव भी कहा गया है.

स्रोत: अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी) आत्म साक्षात्कार का विज्ञान, पृ. 299, 310
अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2012 संस्करण, अंग्रेजी) भगवान चैतन्य, स्वर्ण अवतार की शिक्षाएँ, पृ. 11, 360

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