भगवान विष्णु, जो सभी बलिदानों के भोक्ता हैं, वे बाली महाराज के बलि क्षेत्र में वामन देव के रूप में प्रकट हुए. तब उन्होंने अपने बाएँ पैर को ब्रम्हांड के छोर तक बढ़ाया और अपने महा पाद के नख से उसके आवरण में एक छेद कर दिया. छेद के माध्यम से, हेतुक महासागर के जल को गंगा नदी के रूप में ब्रम्हांड में प्रवेश मिला. भगवान के चरण कमल को धोने के कारण, जो लाल रंग की धूलि से ढँके होते हैं, गंगा के जल को बहुत सुंदर गुलाबी रंग प्राप्त हुआ. प्रत्येक जीव गंगा के पारलौकिक जल को छूकर भौतिक संदूषण से अपने मन को तुरंत शुद्ध कर सकता है, तब भी उसका पानी हमेशा निर्मल रहता है. चूँकि ब्रम्हांड में उतरने से पहले गंगा सीधे भगवान के चरण कमलों का स्पर्श करती है, इसलिए उसे विष्णुपदी के रूप में जाना जाता है. बाद में उसे अन्य नाम जैसे जान्ह्वी और भागीरथी मिले. एक सहस्त्र सहस्राब्दियों के बाद, गंगा का जल इस ब्रह्मांड के सबसे ऊपरी ग्रह ध्रुवलोक पर और फिर ध्रुवलोक के नीचे स्थित सात ग्रहों तक पहुँच गया. फिर इसे असंख्य आकाशीय वायु यानों द्वारा चंद्रमा तक ले जाया जाता है, और फिर यह मेरु पर्वत की चोटी पर गिरती है, जिसे सुमेरु-पर्वत के रूप में जाना जाता है. इस प्रकार, गंगा का जल अंतत: निचले ग्रहों और हिमालय की चोटियों तक पहुँच जाता है, और वहाँ से यह हरिद्वार और पूरे भारत के मैदानी इलाकों में बहती है, जिससे पूरी भूमि शुद्ध होती है.

स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, पाँचवा सर्ग, अध्याय 17 – पाठ 1 व 4

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