समर्पण करने के दिशानिर्देश क्या हैं?
पूरी तरह से समर्पित आत्मा और त्याग पूर्ण जीवन व्यतीत करने वाले व्यक्ति के बीच कोई मूलभूत अंतर नहीं है. केवल यही अंतर है कि संपूर्ण समर्पित आत्मा पूरी तरह से कृष्ण पर निर्भर होती है. समर्पण के लिए छः दिशानिर्देश हैं:
● व्यक्ति को वह सब स्वीकार करना चाहिए जो आध्यात्मिक सेवा के निर्वहन लिए अनुकूल है, और उसे प्रक्रिया को स्वीकार करने के लिए दृढ़ निश्चयी होना चाहिए.
● व्यक्ति को ऐसी सभी वस्तुओं का त्याग कर देना चाहिए जो आध्यात्मिक सेवा के निर्वहन लिए अनुकूल न हों, और उसे वह सब त्यागने के लिए दृढ़ निश्चयी होना चाहिए.
● व्यक्ति को यह विश्वास होना चाहिए कि केवल कृष्ण ही उसे सुरक्षा दे सकते हैं और उसकी पूर्ण आस्था होनी चाहिए कि भगवान उसकी रक्षा करेंगे. एक अवैयक्तिकतावादी सोचता है कि उसकी वास्तविक पहचान कृष्ण के साथ होने में है, लेकिन एक भक्त इस तरह से अपनी पहचान को नष्ट नहीं करता है. वह पूरे विश्वास के साथ रहता है कि कृष्ण सभी प्रकार से कृपापूर्वक उसकी रक्षा करेंगे.
● एक भक्त द्वारा कृष्ण को सदैव अपना अनुरक्षक स्वीकार किया जाना चाहिए. जो लोग गतिविधियों के फल में रुचि रखते हैं वे सामान्यतः देवताओं से सुरक्षा की आशा रखते हैं, लेकिन एक कृष्ण भक्त सुरक्षा के लिए किसी भी देवता की ओर नहीं देखता. उसे पूरा विश्वास होता है कि कृष्ण उसकी रक्षा सभी विपरीत परिस्थितियों से करेंगे.
● एक भक्त हमेशा सचेत होता है कि उसकी कामनाएँ स्वतंत्र नहीं हैं; जब तक कि कृष्ण उन्हें पूरा नहीं करते, वे पूरी नहीं की जा सकतीं.
● व्यक्ति को स्वयं के बारे में हमेशा यही विचार करना चाहिए कि वह आत्माओं में सबसे पतित है ताकि कृष्ण उसका ध्यान रखें.
ऐसी समर्पित आत्मा को किसी पवित्र स्थान जैसे वृंदावन, मथुरा, द्वारका, मायापुर, इत्यादि में शरण लेनी चाहिए, और भगवान के प्रति स्वयं को यह कहते हुए समर्पित कर देना चाहिए, “मेरे भगवान, आज से मैं आपका हूँ. आप अपनी इच्छानुसार मेरी रक्षा कर सकते हैं या मुझे मार सकते हैं”. एक सच्चा भक्त इस प्रकार से कृष्ण की शरण लेता है, और कृष्ण इतने कृतज्ञ होते हैं कि उसे स्वीकार करते हैं और सभी प्रकार से सुरक्षा देते हैं. इसकी पुष्टि श्रीमद्-भागवतम् (11.29.34) में की गई है जहाँ कहा गया है कि यदि कोई मरणासन्न व्यक्ति परम भगवान की शरण ले लेता है और स्वयं को उनकी देखभाल में छोड़ देता है, वह वास्तविकता में अमरत्व पा लेता है और परम भगवान से जुड़ने के योग्य बन जाता है और अलौकिक आनंद का भोग करता है.
स्रोत:अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2012 संस्करण, अंग्रेजी), “भगवान चैतन्य, स्वर्ण अवतार की शिक्षाएँ”, पृ. 140