मिथ्या अहंकार स्वतंत्रता के दुरुउपयोग से उपजता है.
प्रारंभ में, शुद्ध चेतना से, या कृष्ण चेतना की विशुद्ध अवस्था द्वारा, पहला संदूषण हो गया. यही मिथ्या अहंकार, या शरीर की पहचान आत्म के रूप में करना कहलाता है. जीव कृष्ण चेतना की प्राकृतिक अवस्था में अस्तित्वमान रहता है, लेकिन उसे नाम मात्र की स्वतंत्रता होती है, और इस कारण वह कृष्ण को भूल जाता है. मूल रूप से, विशुद्ध कृष्ण चेतना अस्तित्व में होती है, लेकिन सीमित स्वतंत्रता के दुरुपयोग के कारण कृष्ण को भूलने की संभावना होती है. यह वास्तविक जीवन में प्रदर्शित होता है; ऐसे कई उदाहरण हैं जिसमें कृष्ण चेतना में कर्मरत व्यक्ति अचानक परिवर्तित हो जाता है. इसलिए उपनिषदों में यह बताया गया है, कि आध्यात्मिक अनुभूति का मार्ग चाकू की तीखी धार जैसा ही होता है. उदाहरण बिल्कुल उचित है. व्यक्ति एक धारदार उस्तरे से अपनी दाढ़ी बहुत अच्छे से बना लेता है, लेकिन जैसे ही उसका ध्यान उस कर्म से हट जाता है, वह अपना गाल काट बैठता है क्योंकि उसने उस्तरे के प्रयोग में गलती की.
व्यक्ति को न केवल विशुद्ध कृष्ण चेतना के स्तर तक पहुँचना चाहिए, बल्कि उसे बहुत सावधान भी रहना चाहिए. किसी भी प्रकार की असावधानी का परिणाम पतन हो सकता है. इस पतन का कारण मिथ्या अहंकार है. विशुद्ध चेतना की स्थिति से, मिथ्या अहंकार का जन्म स्वतंत्रता के दुरुपयोग के कारण होता है. हम इस पर बहस नहीं कर सकते कि मिथ्या अहंकार विशुद्ध चेतना से क्यों उदित होता है. वास्तविकता में, एसा होगा इसकी संभावना हमेशा रहती है, और इसलिए व्यक्ति को बहुत सावधान रहना चाहिए. मिथ्या अहंकार उन सभी भौतिक कर्मों का मूल सिद्धांत है, जो भौतिक प्रकृति की रीतियों में संपन्न किए जाते हैं. जैसे ही कई विशुद्ध कृष्ण चेतना से हटता है, उसका भौतिक प्रतिक्रियाओं में उलझाव बढ़ जाता है. भौतिकवाद का उलझाव भौतिक चित्त है, और इस भौतिक चित्त से, इंद्रियों और भौतिक अंगों का प्रकटन होता है.
स्रोत:अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण- अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, तीसरा सर्ग, अध्याय 26 – पाठ 24