गुरु कौन है और एक गुरु का होना महत्वपूर्ण क्यों है? हमें गुरु तक कैसे पहुँचना चाहिए?
यदि आप आध्यात्मिक ज्ञान को समझना चाहते हैं, तो आपको गुरु के पास जाना होगा. गुरु शब्द का एक अर्थ “भारी” होता है. इसलिए गुरु वह है जो ज्ञान के भार से भारी है. और वह ज्ञान क्या है? इसे कठोपनिषद्ः श्रोत्रियम् ब्राह्मणिष्टम् [MU 1.2.12] में समझाया गया है. श्रोत्रियम का अर्थ है “वह जिसने वेदों, श्रुति को सुन कर ज्ञान प्राप्त किया है‘, और ब्रम्ह-निष्ठम उसकी सूचना देता है जिसने ब्रम्ह, या बल्कि पारब्रम्ह, भगवान, भगवान के परम व्यक्तित्व का साक्षात्कार कर लिया है. यही गुरु की योग्यता है. उन लोगों की बात अवश्य सुननी चाहिए जो पूर्वगामी उत्तराधिकार या शिष्य उत्तराधिकार की पंक्ति में होते हैं. भगवान कृष्ण भगवद गीता में कहते हैं, एवं परंपरा-प्राप्तम [भ.गी. 4.2]. यदि कोई मानक आलौकिक ज्ञान चाहता है, अहंकारी ज्ञान नहीं, तो उसे पारंपरिक प्रणाली, शिष्य उत्तराधिकार से ज्ञान प्राप्त करना चाहिए. ऊपर उल्लिखित शब्द श्रोत्रियम का एक और अर्थ है “वह जिसने एक गुरु से शिष्य परंपरा में सुन कर ज्ञान लिया है”. और इस श्रुति का परिणाम ब्रम्ह-निष्ठम होगा “वह भगवान के परम व्यक्तित्व की सेवा में दृढ़ता के साथ प्रतिष्ठित हो गया है”. प्रामाणिक गुरु की ये दो प्रमुख योग्यताएँ हैं. उसे एम.ए., बी.ए., या पी.एच.डी. धारी ज्ञानी होने की आवश्यकता नहीं है, और उसके पास बस शिष्य परंपरा में प्रामाणिक श्रुति होनी चाहिये और आध्यात्मिक सेवा में रत होना चाहिए. इसलिए ऐस कहा जाता है, साक्षात्धारित्वेन समस्त शास्त्रैः गुरु भगवान के समान होता है. जब हम गुरु को सम्मान देते हैं, हम भगवान को सम्मान देते हैं. चूँकि हम भगवान के प्रति चेतन होने का प्रयास कर रहे हैं, तो यह आवश्यक है कि हम भगवान के प्रतिनिधि के माध्यम से भगवान का आदर करना सीखें. सभी शास्त्रों में गुरु को भगवान तुल्य माना गया है, लेकिन गुरु कभी नहीं कहते, “मैं भगवान हूँ.” शिष्य का कर्तव्य है कि वह गुरु को वैसा ही आदर देता है जैसा वह भगवान को देता है, लेकिन गुरु कभी नहीं सोचते, कि “मेरे शिष्य मुझे वैसा ही सम्मान देते हैं जैसा वे भगवान को देते हैं; इसलिए मैं भगवान बन गया हूँ.” जैसे ही गुरु ऐसा विचार करता है, वह भगवान के बजाय एक श्वान बन जाता है. सच्चा गुरु भगवान का प्रतिनिधि होता है, और वह केवल भगवान के बारे में ही कहता है और कुछ नहीं. सच्चा गुरु वही है जिसकी रुचि भौतिकवादी जीवन में नहीं होती. वह केवल और केवल भगवान की ही खोज में रहता है. इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि गुरु ईसाई, मुसलमान या हिंदू है, यदि गुरु भगवान का प्रतिनिधित्व कर रहा है तो वह गुरु है. उदाहरण को लिए प्रभु यीसू, जिन्होंने लोगों के बीच यह कहते हुए प्रचार किया, “बस भगवान से प्रेम करने का प्रयास करो”. एक व्यक्ति – वह चाहे हिंदू, मुस्लिम, या ईसाई, कोई भी हो, गुरु होता है यदि वह लोगों को भगवान से प्रेम करने के लिए विश्वास दिला दे. वही सर्वश्रेष्ठ है. गुरु कभी नहीं कहता “मैं भगवान हूँ” या “मैं तुम्हें भगवान बना दूँगा.” सच्चा गुरु कहता है, “मैं भगवान का सेवक हूँ, और मैं तुम्हें भी भगवान का सेवक बना दूँगा.” गुरु की वेशभूषा चाहे जैसी हो, उसका महत्व नहीं है. जैसा कि चैतन्य महाप्रभु ने कहा, “जो कोई भी कृष्ण के बारे में ज्ञान दे सके, वह एक आध्यात्मिक गुरु है”. एक सच्चा आध्यात्मिक गुरु बस यही प्रयास करता है कि लोगों को कृष्ण, या भगवान के प्रति श्रद्धालु बनाए. उसका अन्य कोई कार्य़ नहीं होता. इसलिए विश्वनाथ चक्रवर्ती कहते हैं, किंतु प्रभोर यः प्रिय एव तस्य. चूँकि गुरु भगवान के सबसे विश्वसनीय सेवक होते हैं, इसलिए गुरु को वही सम्मान दिया जाता है जो हम भगवान को अर्पित करते हैं. भगवान हमेशा भगवान हैं, गुरु हमेशा गुरु हैं. शिष्टाचार के रूप में, भगवान पूजनीय भगवान हैं, और गुरु पूजा करने वाले भगवान (सेवक-भगवान) हैं. इसलिए गुरु को प्रभुपाद के रूप में संबोधित किया जाता है. प्रभु शब्द का अर्थ है “भगवान” और पाद का अर्थ है “पद.” इस प्रकार प्रभुपाद का अर्थ है “वह जिसने प्रभु का पद ग्रहण किया है.” यह साक्षद धारित्वेन समस्त शास्त्रैः के समान है. भगवद गीता में भगवान कृष्ण द्वारा गुरु तक पहुंचने की प्रक्रिया बताई गई है: तद् विधि प्राणिपतेना परिप्रशनेन सेवाय [भ.गी.. 4.34]। “व्यक्ति को गुरु की आज्ञा माननी चाहिए, उनसे प्रश्न पूछने चाहिए और उनकी सेवा करनी चाहिए”. यदि आप बस सीधे आध्यात्मिक गुरु के पास जाते हैं और उनसे चुनौतीपूर्ण भावना में प्रश्न पूछते हैं लेकिन उनके निर्देशों को स्वीकार नहीं करते हैं, और सेवा प्रदान नहीं करते हैं, तो आप अपना समय व्यर्थ कर रहे हैं. यहाँ प्रयुक्त शब्द प्राणिपतेन है, “बिना किसी पूर्वग्रह के आज्ञापालन करना”. अतः पारलौकिक ज्ञान का स्वागत इस प्राणिपत पर आधारित है. इसीलिए बाद में कृष्ण कहते हैं,सर्व-धर्मन् परित्यज्य मम एकं शरणं व्रज: [भ.गी. 18.66] “शेष सभी वस्तुओं का त्याग कर दो और मेरी ओर समर्पित हो जाओ”. जैसे हमें कृष्ण के सामने समर्पण करना है, वैसे ही हमें कृष्ण के प्रतिनिधि, आध्यात्मिक गुरु के सामने भी समर्पण करना होगा.
स्रोत: अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “ज्ञान प्राप्ति के लिए खोज”, पृ. 74 अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “आत्म साक्षात्कार का विज्ञान”, पृ. 67 और 72