इंद्रिय तुष्टि की व्यवस्था का अर्थ अंततः जीवों को परम भगवान तक वापस लौटने के एकमात्र उद्देश्य तक ले जाना है।

“भौतिक जीवन के तीन सामान्य विभागों को देव, तिर्यक और नर कहा जाता है – अर्थात्, देवता, उप-मानव जीव और मानव। जीवन की विभिन्न प्रजातियों में भौतिक इंद्रिय तुष्टि के लिए विभिन्न सुविधाएँ होती हैं. विभिन्न प्रजातियों को भिन्न रूप से बनी इंद्रियों से पहचाना जाता है, जैसे जननांग, नथुने, जिव्हा, कान और आँखें। उदाहरण के लिए, कबूतरों को लगभग असीमित मैथुन की सुविधा दी गई है। भालुओं के पास सोने के पर्याप्त अवसर होते हैं। बाघ और सिंह लड़ने और माँस खाने की प्रवत्ति दर्शाते हैं, घोड़ों को तेज़ दौड़ने के लिए उनकी टाँगों से पहचाना जाता है, गिद्ध और चीलों के पास तीक्ष्ण दृष्टि होती है, और इसी प्रकार। मानव को उसके विस्तृत मष्तिष्क द्वारा पहचाना जाता है, जिसका उद्देश्य भगवान को समझना होता है।

स्व-मात्रात्म-प्रसिद्धये वाक्यांश इस श्लोक में बहुत महत्वपूर्ण है। यह शब्द स्व स्वामित्व का संकेत करता है। सभी जीव परम भगवान से संबंध रखते हैं (ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन:)। इसलिए इस श्लोक के अनुसार उनके पास दो विकल्प होते हैं – मात्रा-प्रसिद्धये और आत्म-प्रसिद्धये।

मात्रा का अर्थ होता है भौतिक इंद्रियाँ, और प्रसिद्धये का अर्थ प्रभावी उपलब्धि। इसलिए मात्रा-प्रसिद्धये का अर्थ है “इंद्रिय तुष्टि में प्रभावी रूप से भाग लेना।”

दूसरी ओर, आत्म-प्रसिद्धये का अर्थ कृष्ण चेतना होता है। आत्मा की दो श्रेणियाँ होती हैं – जीवात्मा, या सामान्य जीव, जो निर्भर होता है, और परमात्मा, परम जीव, जो स्वतंत्र होता है। कुछ जीव आत्म की दोनों श्रेणियों को समझने की इच्छा रखते हैं, और इस श्लोक में शब्द आत्म-प्रसिद्धये संकेत देता है कि भौतिक संसार की रचना उन जीवो्ं को ऐसी समझ अर्जित करने और इस प्रकार भगवान के राज्य को लौटने का अवसर देने के लिए की गई है, जहाँ जीवन अमर और सुख और आनंद से परिपूर्ण होता है।

श्रील श्रीधर स्वामी श्रीमद्-भागवतम (10.87.2) से एक श्लोक उद्धृत करके इसकी पुष्टि करते हैं:

बुद्धीन्द्रियमन:प्राणान् जनानामसृजत् प्रभु:
मात्रार्थं च भवार्थं च आत्मनेऽकल्पनाय च

“भगवान ने जीवों की बुद्धि, इंद्रियाँ, मन और प्राणवायु की रचना इंद्रिय तुष्टि के लिए, उच्चतर जन्म पाने हेतु बलिदान करने, और अंततः परम भगवान को बलिदान करने के लिए की है।”

श्रील जीव गोस्वामी के अनुसार, भगवान की रचना का वास्तविक उद्देश्य केवल एक है: स्वयं भगवान की आध्यात्मिक सेवा की प्रगति को सुगम बनाना। यद्यपि ऐसा कहा जाता है कि भगवान इंद्रिय तुष्टि को सुगम बनाते हैं, समझना यह चाहिए कि भगवान का परम व्यक्तित्व बद्ध आत्माओं की मूर्खता की अंततः अनदेखी नहीं करता। भगवान इंद्रिय तुष्टि (मात्रा-प्रसिद्धये) की सुविधा देते हैं ताकि जीव उनके बिना आनंद लेने का प्रयास करने की व्यर्थता को समझ सकें। प्रत्येक जीवित इकाई कृष्ण का ही अंश होती है। वैदिक साहित्य में भगवान एक नियामक व्यवस्था प्रदान करते हैं ताकि जीव धीरे-धीरे मूर्ख बने रहने की अपनी प्रवृत्तियों को समाप्त कर दें और उनके प्रति समर्पण के महत्व को समझ सकें। निस्संदेह भगवान ही समस्त सौंदर्य, आनंद और संतुष्टि के भंडार हैं, और भगवान की प्रेममय सेवा में रत होना प्रत्येक जीव का कर्तव्य है। यद्यपि जगत उत्पत्ति के स्पष्ट रुप से दो उद्देश्य होते हैं, किंतु यह समझना चाहिए कि परम उद्देश्य एक ही होता है। इंद्रिय तुष्टि की व्यवस्था का उद्देश्य अंततः जीवों को परम भगवान के पास, वापस घर लौटने के एकमात्र उद्देश्य पर लाना होता है।”

स्रोत – अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद् भागवतम”, ग्यारहवाँ सर्ग, अध्याय 3 – पाठ 3.