गर्भनिरोधी विधियों से जनसंख्या सीमित करना भी पापमय कर्म है.
पूर्व में लोग एक सौ से दो सौ पुत्र और पुत्रियों को जन्म देते थे. वर्तमान समय में कोई भी इतनी बड़ी मात्रा में बच्चों को उत्पन्न नहीं कर सकता है. इसके बजाय, मानव जाति गर्भनिरोधक विधियों द्वारा जनसंख्या की वृद्धि रोकने में बहुत व्यस्त है. हम वैदिक साहित्य में नहीं पाते हैं कि उन्होंने कभी भी गर्भनिरोधक विधियों का उपयोग किया हो, हालांकि वे सैकड़ों बच्चों को जन्म दे रहे थे. गर्भनिरोधक विधि द्वारा जनसंख्या की रोकथाम करना एक और पापपूर्ण गतिविधि है, लेकिन कलि के इस युग में लोग इतने पापी हो गए हैं कि वे अपने पापी जीवन की परिणामी प्रतिक्रियाओं की चिंता नहीं करते हैं. वैदिक शास्त्रों के अनुसार गर्भनिरोधक विधि यौन जीवन में संयम होनी चाहिए. ऐसा नहीं है कि किसी को अप्रतिबंधित यौन जीवन में लिप्त होना चाहिए और गर्भावस्था की रोकथाम के लिए किसी विधि का उपयोग करके बच्चों से बचना चाहिए. यदि कोई पुरुष स्व्स्थ चेतना में है, तो वह अपनी धार्मिक पत्नी से परामर्श करता है, और इस परामर्श के परिणाम स्वरूप, बुद्धिमत्ता के साथ, वह अपनी योग्यतानुसार जीवन के महत्व का अनुमान लगाने में अग्रसर होता है. दूसरे शब्दों में, यदि कोई इतना सौभाग्यशाली है कि, उसकी पत्नी विवेकशील है, तो वह आपसी परामर्श से यह तय कर सकता है कि मानव जीवन कृष्ण चेतना में आगे बढ़ने के लिए है, न कि बड़ी संख्या
में बच्चों को जन्म देने के लिए. संतानों को परिणाम, या उपोतेपाद कहा जाता है, जब कोई अपनी सुबुद्धि का परामर्श लेता है तो वह देख सकता है कि उसके उपोत्पाद उसकी कृष्ण चेतना का विस्तार होने चाहिए.
स्रोत:अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), "श्रीमद् भागवतम्", चौथा सर्ग, अध्याय 27 - पाठ 06