सबसे स्थूल प्रकार का अनर्थ जो बाध्य आत्मा को भौतिक अस्तित्व में बांधता है वह काम वासना है, और यह काम वासना धीरे-धीरे पुरुष और स्त्री के मिलन में विकसित हो जाती है. जब पुरुष और स्त्री सहवास करते हैं, तब घर, बच्चे, मित्र, रिश्तेदार और संपत्ति के संग्रह से काम वासना और भी उत्त्जित हो जाती है. जब ये सभी प्राप्त हो जाते हैं, तो बाध्य आत्मा ऐसी उलझनों से अभिभूत हो जाती है, और अहंकार की झूठी भावना, या “स्वयं” और “मेरा” की भावना प्रमुख हो जाती है, और काम वासना विभिन्न राजनीतिक, सामाजिक, परोपकारी और कई अन्य अवांछित व्यस्तताओं तक विस्तृत हो जाती है, जो समुद्री लहरों के फेन जैसी होती है, जो किसी एक समय बहुत बलवती हो जाता है, और अगले ही पल आकाश में बादलों की भाँति गायब हो जाता है. बाध्य आत्मा ऐसे उत्पादों, और साथ ही काम वासना के उत्पादों से घिर जाती है, और इस प्रकार भक्ति-योग से काम वासना का क्रमिक वाष्पीकरण होता है, जो तीन प्रधानताओं, जैसे लाभ, आराधना और प्रतिष्ठा का सारांश होता है. सभी बाध्य आत्माएँ काम वासना के इन विभिन्न रूपों के पीछे पागल रहती हैं, और किसी भी व्यक्ति को स्वयं ही देखना होगा कि वह काम वासना पर प्रमुखता से आधारित ऐसी भौतिक उत्कंठा से कितना मुक्त हुआ है. जैसे किसी व्यक्ति को भोजन का प्रत्येक कौर खाने पर भूख से संतुष्टि मिलती है, उसी प्रकार उसे यह देखने में भी सक्षम होना चाहिए कि वह किस सीमा तक काम वासना से मुक्त हुआ है. भक्ति-योग की प्रक्रिया द्वारा अपने विभिन्न रूपों के साथ-साथ काम वासना कम हो जाती है क्योंकि भगवान की कृपा से भक्ति-योग का स्वचालित परिणाम प्रभावी रूप से ज्ञान और त्याग होता है, भले ही भक्त भौतिक रूप से बहुत शिक्षित न हो. ज्ञान का अर्थ है चीजों को उसी रूप में जानना जैसी वे हैं, और अगर विचार-विमर्श से यह ज्ञान होता है कि ऐसी चीजें भी हैं जो सर्वथा अनावश्यक हैं, तो जिस व्यक्ति ने ज्ञान प्राप्त किया है, वह ऐसी अवांछित चीजों को स्वाभाविक रूप से छोड़ देता है. जब बाध्य आत्मा ज्ञान संस्कृति से यह जान लेती है कि भौतिक आवश्यकताएँ अवांछित चीज़ें हैं, वह ऐसी अवांछित वस्तुओं से विलग हो जाता है. ज्ञान की यह अवस्था वैराग्य, या अवांछित वस्तुओं से अनासक्ति कहलाती है. हम पहले चर्चा कर चुके हैं कि भावातीत वादी व्यक्ति के लिए आत्मनिर्भर होना आवश्यक है और जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए संपन्न अंधे व्यक्तियों से भीख नहीं मांगनी चाहिए. शुकदेव गोस्वामी ने जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं, जैसे भोजन, नींद और आश्रय की समस्या के लिए कुछ विकल्प सुझाए हैं, लेकिन उन्होंने यौन संतुष्टि का कोई विकल्प नहीं बताया है. जिस व्यक्ति की काम वासना अब भी उसके साथ हो, उसे त्यागी जीवन व्यवस्था को स्वीकारने का प्रयास नहीं करना चाहिए. क्योंकि जो इस अवस्था तक नहीं पहुँचा, उसके लिए त्याग की जीवन व्यवस्था का कोई प्रश्न ही नहीं है. इसलिए एक उचित आध्यात्मिक गुरु के मार्गदर्शन में आध्यात्मिक सेवा की क्रमिक प्रक्रिया द्वारा, और भागवतम् के सिद्धांतों का पालन करते हुए, व्यक्ति को अनासक्त जीवन व्यवस्था को वास्तविकता में स्वीकार करने से पहले कम से कम काम वासना पर नियंत्रण करने में योग्य होना चाहिए.

स्रोत:अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), "श्रीमद् भागवतम्", द्वितीय सर्ग, अध्याय 2 - पाठ 12
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