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कृष्ण – समस्त वस्तुओं के स्रोत !!

प्रिय पाठकों iandKṛṣṇa. साइट में आपका स्वागत है. इस वेबसाइट के माध्यम से हमारा प्रयास प्रत्येक मानव को भगवान की रचना को समझने का अवसर देना है, दूसरे शब्दों में, ईश्वर के विज्ञान की अंतर्दृष्टि प्रदान करना है. यह वेबसाइट सभी धर्मों/संप्रदायों के लोगों का स्वागत करती है, क्योंकि भगवान ने कभी कोई संप्रदाय नहीं निर्मित किया. हम सभी एक ही सर्वोच्च सत्ता के भाग हैं और हमारा प्रयास उसकी रचना को समझने और बिना शर्त उसकी सेवा करने का होना चाहिए. कृष्ण समस्त वस्तुओं के स्रोत हैं; वे केवल हिंदू भगवान नहीं हैं. वे सबका मूल हैं. स्थिर या गतिशील, प्रत्येक जीवित प्राणी उन्हीं का अंश है. कृष्ण सभी छः एश्वर्यों – संपत्ति, प्रसिद्धि, शक्ति, ज्ञान, सौंदर्य, और सन्यास से परिपूर्ण हैं, और इसीलिए वे इंद्रियों के स्वामी हैं. वे इन अभिव्यक्त ब्रह्मांडों की रचना  उनमें अवस्थित प्राणियों का उद्धार करने के लिए करते हैं, जो तीन प्रकार के कष्ट भोग रहे हैं, उनका पालन करते हैं, और ऐसे कर्मों से थोड़े भी प्रभावित हुए बिना यथासमय उन्हें समाप्त करते हैं.

इस वेबसाइट की सामग्री प्राचीन वैदिक साहित्य/ सनातन-धर्म पर आधारित है जिसे लोग अक्सर हिंदू धर्म से जोड़ते हैं; हालाँकि किसी भी वैदिक लेख में हिंदू/हिंदूवाद शब्द का उल्लेख नहीं है. “भारत में जिसे सनातन धर्म ‘शाश्वत संप्रदाय’ के रूप में जाना जाता है, उसका अर्थ यह शाश्वत, सर्व व्यापी, अपरिवर्तनीय, अविनाशी जीवित आत्मा है. कहने का अर्थ है, वास्तविक धर्म विभिन्न धार्मिक आस्थाओं से ऊपर है जो सकल भौतिक शरीर और सूक्ष्म भौतिक मष्तिष्क पर एकाग्र होती हैं. सनातन धर्मं किन्हीं विशेष लोगों, स्थान, या समय के लिए सीमित नहीं है. बल्कि, वह अनादि-अनंत और सर्वव्यापी है. सनातन धर्म के अलावा सभी धर्मों का उद्देश्य भौतिक या मनोवैज्ञानिक परिवर्तन करना होता है. विभिन्न मानव जातियों, स्थानों, और समय के प्रभाव से हम स्वयं को हिंदू, मुस्लिम, ईसाई, बौद्ध, समाजवादी, बोल्शेविक या इसी तरह से मानने लगे हैं.” (अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2012 संस्करण), “भगवत् संदेश”, पृष्ठ 25

विशेषकर, धार्मिक क्षेत्र में, हमने विभिन्न मनुष्यों, स्थानों, और समय के अनुसार संप्रदायों के कई प्रकारों को स्थापित करने का प्रयास किया है. और ठीक इसी कारण से, हम स्वयं की कल्पना “संप्रदाय का परिवर्तन करते” हुए कर सकते हैं. जो व्यक्ति आज हिंदू है वह अगले दिन मुसलमान बन सकता है, या जो आज मुसलमान है वह कल ईसाई बन सकता है. लेकिन जब हमें अनुभवातीत ज्ञान प्राप्त हो जाता है और हम सनातन-धर्म में अवस्थित हो जाते हैं, जो जीवित सत्ता – आत्मा- का वास्तविक शास्वत धर्म है, तब ही हम संसार में वास्तविक, निर्विवाद शांति, खुशहाली, और प्रसन्नता पा सकते हैं. (अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2012 संस्करण), “भगवत् संदेश”, पृष्ठ 25 और 26)

वैदिक ज्ञान का उद्देश्य सर्वोच्च भगवान को समझना है. व्यक्ति केवल भक्तिमय सेवा में लीन होकर ही सर्वोच्च भगवान के राज्य में प्रवेश पा सकता है. इसकी पुष्टि स्वयं भगवान द्वारा भागवद्गीता में की गई है: “व्यक्ति मुझे केवल भक्तिमय सेवा के माध्यम से ही समझ सकता है”. कुछ अध्येता यह सुझाव देते हैं कि स्वयं को भक्तिमय सेवा के स्तर तक लाने के लिए ज्ञान और आत्मत्याग महत्वपूर्ण घटक हैं. लेकिन वास्तविकता में यह सच नहीं है. ज्ञान या आत्मत्याग में प्रवीणता, जो कृष्ण चेतना में प्रवेश पाने के लिए अनुकूल है, को शुरुआत में स्वीकार किया जा सकता है, लेकिन अंततः उन्हें भी अस्वीकार किया जा सकता है, क्योंकि भक्तिमय सेवा ऐसी सेवा के भाव या अभिलाषा के अलावा किसी भी वस्तु पर निर्भर नहीं होती.

उसे गंभीरता के अलावा कोई आवश्यकता नहीं है. निपुण भक्तों की राय यह है कि मानसिक अटकलें और योग अभ्यास की कृत्रिम तपस्या भौतिक प्रदूषण से मुक्त होने के लिए अनुकूल हो सकती है, लेकिन वे व्यक्ति के हृदय को और अधिक कठोर भी बना देंगी. वे भक्तिमय सेवा की प्रगति में कोई सहायता नहीं करेंगी. इसलिए ये प्रक्रियाएँ भगवान की अतींद्रिय प्रेममय सेवा में प्रवेश करने के लिए अनुकूल नहीं हैं. वास्तव में, कृष्ण चेतना – स्वयं भक्तिमय सेवा – ही भक्ति जीवन में प्रगति करने का एकमात्र मार्ग है. भक्तिमय सेवा ही परम है; कारण और प्रभाव दोनों वही है.जो कुछ भी विद्यमान है उसका कारण और प्रभाव भगवान का सर्वोच्च व्यक्तित्व ही है, और उस परम तक जाने के लिए, भक्तिमय सेवा की प्रक्रिया – जो स्वयं भी परम है – को अपनाना होगा. (अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2011 संस्करण), “भक्ति रसामृत सिंधु”, पृष्ठ 113)

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से प्रेरित

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