मिथ्या अहंकार जीवों को किस प्रकार विस्मृति के बंधन में फ़ंसा लेता है.
मिथ्या अहंकार का प्रमुख कार्य नास्तिकता है. जब कोई व्यक्ति भगवान के परम व्यक्तित्व के नित्य उप अंश के रूप में अपनी मूल स्थिति को भूल जाता है और स्वतंत्र रूप से प्रसन्नता चाहता है, तो वह मुख्य रूप से दो तरह से व्यवहार करता है. पहले तो वह व्यक्तिगत लाभ या इंद्रिय सुख के लिए चोरी छिपे कर्म करने का प्रयास करता है, जब वो निराश हो जाता है तो वह एक दार्शनिक कल्पना करने वाला बन जाता है और स्वयं के बारे में सोचता है कि वह भगवान के समान स्तर पर है. भगवान के साथ एक हो जाने का यह झूठा विचार छलकारी ऊर्जा का अंतिम प्रलोभन होता है, जो किसी भी जीव को मिथ्या अहंकार के भ्रमजाल के प्रभाव में विस्मृति के बंधन में फ़ंसा लेती है.
मिथ्या अहंकार के चंगुल से मुक्ति का सबसे अच्छा साधन पूर्ण सत्य के बारे में दार्शनिक अटकलों की आदत को छोड़ना है. यह निश्चित रूप से जानना चाहिए कि परम सत्य को कभी भी अपूर्ण अहंकारी व्यक्ति की दार्शनिक कल्पनाओं द्वारा महसूस नहीं किया जाता है. परम सत्य, या भगवान के सर्वोच्च व्यक्तित्व का अनुभव, संपूर्ण समर्पण और प्रेम के साथ ऐसे विशेषज्ञ से उनके बारे में सुनने से होता है जो श्रीमद-भागवतम् में वर्णित बारह महान अधिकारियों का प्रतिनिधि हो. केवल ऐसे प्रयास से ही भगवान की मायावी ऊर्जा पर विजय पाई जा सकती है, हालाँकि अन्य के लिए वह सर्वोत्कृष्ट है, जैसा कि भगवद्-गीता (7.14) में पुष्टि की गई है.
स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, तृतीय सर्ग, अध्याय 5 – पाठ 31