महत्-तत्व विशुद्ध चेतना की परछाईं है जहाँ से जीवों के मिथ्या अहंकार का जन्म होता है.
महत्-तत्व पूर्ण चेतना है क्योंकि इसके एक भाग का प्रतिनिधित्व हर एक प्राणी में बु्द्धि के रूप में होता है. महत्-तत्व परम जीव की परम चेतना से सीधे जुड़ा होता है, लेकिन फिर भी वह पदार्थ लगता है. महत्-तत्व, या विशुद्ध चेतना की परछाई, समस्त रचना का अंकुरण स्थान है. वह कामना की स्थिति के किंचित मिश्रण के साथ शुद्ध अच्छाई है, और इस प्रकार कर्म इस बिंदु से पैदा होता है.
महत्-तत्व विशुद्ध आत्मा और भौतिक अस्तित्व के बीच का माध्यम है. वह पदार्थ और आत्मा के बीच का जुड़ाव है जहाँ से जीव का मिथ्या अहंकार उपजता है. सभी जीव परम भगवान के व्यक्तित्व के अलग-अलग हिस्से हैं. मिथ्या अहंकार के दबाव में, सीमित आत्माएँ, परम भगवान के व्यक्तित्व का हिस्सा होकर भी, स्वयं को भौतिक प्रकृति का भोक्ता समझती हैं. यह मिथ्या अहंकार भौतिक अस्तित्व को बांधने वाली शक्ति है. भगवान बारंबार किंकर्तव्यविमूढ़ सीमित आत्माओं को मिथ्या अहंकार से मुक्त होने का अवसर देते हैं, और इसीलिए अंतराल से भौतिक रचना होती रहती है. वे सीमित आत्माओं को मिथ्या अहंकार की गतिविधियों को ठीक करने के लिए सभी सुविधाएँ प्रदान करते हैं, लेकिन वे भगवान के भाग के रूप में उनकी लघु स्वतंत्रता में व्यवधान नहीं करते.
अपने मूल आध्यात्मिक अस्तित्व में शुद्ध जीव भगवान के सेवक के रूप में अपनी प्राकृतिक स्थिति के प्रति पूर्ण सचेत होता है. ऐसी शुद्ध चेतना में स्थित सभी आत्माएँ मुक्त हो जाती हैं, और इस प्रकार वे आध्यात्मिक आकाश के विभिन्न वैकुंठ ग्रहों में आनंद और ज्ञान के साथ सदैव रहती हैं. जब भौतिक रचना का प्रकटन होता है, तो वह उनके लिए नहीं होता. हमेशा के लिए मुक्त आत्माओं को नित्य-मुक्त कहा जाता है, और उनका भौतिक रचना के साथ कोई संबंध नहीं होता. भौतिक रचना विद्रोही आत्माओं के लिए है जो भगवान की छत्रछाया में समर्पण स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होती हैं. झूठे स्वामित्व की भावना को मिथ्या अहंकार कहा जाता है. यह भौतिक प्रकृति के तीन प्रकारों में प्रकट होता है, और यह केवल मानसिक अटकलों में अस्तित्व मान होता है. जो लोग भलाई की अवस्था में होते हैं, वे सोचते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति भगवान है, और इस प्रकार वे विशुद्ध भक्तों पर हंसते हैं, जो प्रभु की पारलौकिक प्रेममयी सेवा में संलग्न होने का प्रयास करते हैं. जो लोग उत्कंठा से भरे होते हैं वे इसे विभिन्न तरीकों से भौतिक प्रकृति पर प्रभुत्व देने का प्रयास करते हैं. उनमें से कुछ परोपकारी गतिविधियों में संलग्न होते हैं जैसे कि वे उनकी मानसिक अटकल भरी योजनाओं द्वारा दूसरों का भला करने के लिए नियुक्त किए गए भगवान के प्रतिनिधि हों. ऐसे पुरुष सांसारिक परोपकार के मानक तरीकों को स्वीकार करते हैं, लेकिन उनकी योजनाएँ मिथ्या अहंकार के आधार पर बनाई जाती है. यह मिथ्या अहंकार प्रभु के साथ एक होने की सीमा तक फैल जाता है. अहंकारी सीमित आत्माओं के अंतिम वर्ग को–जो अज्ञानता की अवस्था में होती हैं–स्थूल शरीर के साथ आत्म की पहचान द्वारा पथभ्रष्ट किया जाता है. इस प्रकार, उनकी सभी गतिविधियाँ केवल शरीर के आसपास केंद्रित होती हैं. इन सभी व्यक्तियों को मिथ्या अहंकारी विचारों के साथ खेलने का मौका दिया जाता है, लेकिन साथ ही भगवान इतने दयालु होते हैं कि वे उन्हें भागवद्-गीता और श्रीमद्-भागवतम् जैसे ग्रंथों से सहायता लेने का अवसर देते हैं ताकि वे कृष्ण के विज्ञान के समझ सकें और इस प्रकार अपने जीवन को सफल बना सकें. इसलिए समस्त भौतिक रचना, भौतिक प्रकृति की अवस्था में विभिन्न भ्रमों के अधीन मानसिक धरातल पर मंडरा रहे मिथ्या अहंकारमयी जीवों के लिए है.
भौतिक प्रकृति की विभिन्न प्रकारों से व्यवहार करने वाला मिथ्या अहंकार प्रकट संसार में विद्यमान सभी भौतिक पदार्थों का स्रोत है. मिथ्या अहंकार का प्रमुख कार्य भगवानविहीनता है. जब कोई व्यक्ति परम भगवान के व्यक्तित्व के स्थायी रूप से गौण भाग के रूप में अपनी प्राकृतिक स्थिति को भूल जाता है, तब वह दो प्रमुख तरह का व्यवहार करता है. पहले वह व्यक्तिगत लाभ या इंद्रिय सुख के लिए चोर समान कर्म करता है, और पर्याप्त समयावधि तक इस तरह के कर्म करने का प्रयास करने के बाद, जब वह निराश हो जाता है तब वह दार्शनिक रूप से सोचने लगता है और स्वयं को भगवान के स्तर का समझने लगता है. भगवान के साथ एकाकार करने का यह झूठा विचार भ्रामक ऊर्जा का अंतिम प्रलोभन होता है, जो किसी जीव को मिथ्या अहंकार की माया के अधीन विस्मृति की दासता में जकड़ लेता है. मिथ्या अहंकार के पंजे से मुक्ति का सर्वश्रेष्ठ साधन है कि परम सत्य के संबंध में दार्शनिक अटकलों की आदत को छोड़ दिया जाए. व्यक्ति को निश्चित रूप से ज्ञात होना चाहिए कि परम सत्य का अनुभव कभी भी अहंकारी व्यक्ति की अपूर्ण दार्शनिक अटकलों द्वारा नहीं होता है. परम सत्य, या भगवान के परम व्यक्तित्व का अनुभव संपूर्ण समर्पण और प्रेम के साथ किसी प्रामाणिक विशेषज्ञ द्वारा सुनने पर होता है जो श्रीमद्-भागवतम् में वर्णित बारह महान विशेषज्ञों का प्रतिनिधि हो. केवल ऐसे प्रयास से ही कोई भगवान की मायावी ऊर्जा पर विजय पा सकता है, यद्यपि दूसरों के लिए वह अजेय है, जैसा कि भागवद्-गीता (7.14) में पुष्ट किया गया है.
स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण – अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, तृतीय सर्ग, अध्याय 5 – पाठ 27 से 31