पूर्व में, सभी गतिविधियाँ विष्णु के संबंध में ही की जाती थीं, लेकिन, सत्य युग के बाद वैष्णवों के बीच अनादरपूर्व व्यवहार के लक्षण थे. श्रील भक्तिविनोद ठाकुर ने कहा था कि एक वैष्णव वह होता है जिसने अन्य लोगों की सहायता वैष्णव बनने में की हो. एक ऐसा उदाहरण जिन्होंने अन्यों को वैष्णव में परिवर्तित किया नारद मुनि हैं. एक शक्तिशाली वैष्णव जिसने अन्यों को वैष्णव में परिवर्तित किया हो उनकी पूजा की जाती है, लेकिन भौतिक प्रदूषण के कारण, कभी-कभी ऐसे असाधारण वैष्णव का अन्य लघु वैष्णवों द्वारा अनादर किया जाता है. जब महान संत व्यक्तियों ने यह प्रदूषण देखा, तो उन्होंने मंदिर में अर्च-विग्रह की पूजा प्रारंभ करवाई. यह त्रेता-युग में प्रारंभ हुआ और द्वापर-युग में विशेषकर प्रचलित था (द्वापरे परिचार्ययम). किंतु कलियुग में, अर्च-विग्रह की पूजा की अवहेलना की जा रही है. इसलिए हरे कृष्ण मंत्र का जाप करना अर्च-विग्रह पूजन से अधिक शक्तिशाली होता है. श्री चैतन्य महाप्रभु ने एक व्यावहारिक उदाहरण प्रस्तुत किया जिसमें उन्होंने कोई मंदिर या अर्च-विग्रह स्थापित नहीं किए, बल्कि उन्होंने प्रचुरता के साथ संकीर्तन आंदोलन का सूत्रपात किया. इसलिए कृष्ण चेतना के उपदेशक को संकीर्तन आंदोलन पर अधिक बल देना चाहिए, विशेषकर अधिकाधिक मात्रा में पारलौकिक साहित्य का वितरण करके. इससे संकीर्तन आंदोलन को सहायता मिलती है. जब भी अर्च-विग्रह की पूजा करने की संभावना हो, तो व्यक्ति कई केंद्र स्थापित कर सकता है, किंतु व्यक्ति को पारलौकिक साहित्य के वितरण पर अधिक बल देना चाहिए, क्योंकि लोगों को कृष्ण चेतना में परिवर्तित करने में यह अधिक प्रभावी होगा.

 

स्रोत- अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, सातवाँ सर्ग, खंड 14- पाठ 39

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