जिव्हा शरीर में सबसे महत्वपूर्ण इंद्रिय है. इसलिए यह अनुशंसा की जाती है कि यदि हम अपनी इंद्रियों को नियंत्रित करना चाहते हैं तो हमें पहले जीभ को नियंत्रित करना चाहिए. अज्ञानता (भौतिक संसार) के इस जील के भीतर हमारा कारावास, भोग विलास की हमारी इच्छा के कारण ही जारी है. और, भक्तिविनोद ठाकुर कहते हैं कि, जीभ सभी इंद्रियों में से सबसे खतरनाक है. यदि हम जीभ पर नियंत्रण नहीं कर सकते हैं, तो जीभ हमें एक के बाद एक विभिन्न प्रकार के शरीर लेने के लिए बाध्य करेगी. यदि कोई व्यक्ति मांस और रक्त खाकर अपनी जीभ को संतुष्ट करने का बहुत शौकीन है: तो उसे एक बाघ या किसी अन्य मांस खाने वाले अतिलोलुप जानवर का शरीर मिलेगा. सेवोन्मुखे हि जिह्वादौ स्वयमा इवा स्फुरत्यदाह: “जब हम, जीभ से शुरू करते हुए, अपनी इंद्रियों के साथ भगवान को पारलौकिक प्रेममयी सेवा प्रदान करते हैं, तो भगवान धीरे-धीरे स्वयं को प्रकट करते हैं”.

हमारा पहला कार्य जीभ को भगवान की सेवा में लगाना है. कैसे? उनके नाम, प्रसिद्धि, गुण, रूप, पराक्रम, और लीलाओं का जप और महिमा करके. यदि हम अपनी जीभ को हमेशा हरे कृष्ण मंत्र का जाप करने में लगा सकते हैं, तो हम कृष्ण को अनुभव करेंगे, क्योंकि कृष्ण के नाम की ध्वनि स्वयं कृष्ण से अलग नहीं है क्योंकि कृष्ण संपूर्ण हैं. इसके अलावा, हमारी जीभ स्वाद के लिए बहुत स्वादिष्ट व्यंजन भी चाहती है. इसलिए कृष्ण ने, बहुत दयालु होने के नाते, आपको सैकड़ों और हजारों स्वादिष्ट व्यंजन दिए हैं – उनके द्वारा खाए गए खाद्य पदार्थों के अवशेष. और यदि आप केवल इतनी दृढ़ प्रतिज्ञा करते हैं – “मैं अपनी जीभ को कृष्ण को अर्पित नहीं होने वाली किसी भी चीज़ का स्वाद नहीं लेने दूंगा और अपनी जीभ का उपयोग हमेशा हरे कृष्ण का जाप करने में करूंगा” – तो सभी संपूर्णता आपकी मुट्ठी में होगी. जीभ का यही कार्य है. जव जिव्हा भगवान की सेवा में लिप्त हो, तो अन्य सभी इंद्रियाँ धीरे-धीरे उसमें लग जाएंगी.

स्रोत:अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), "द क्वेस्ट फॉर एनलाइटनमेंट", पृष्ठ 23 और 24
अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2012 संस्करण, अंग्रेजी), "भगवान चैतन्य, स्वर्ण अवतार की शिक्षाएँ", पृष्ठ 4 
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