सामान्य व्यक्ति का एक आम तर्क यह होता है कि चूँकि भगवान हमारी आँखों से दृष्टिगोचर नहीं हैं, तो कोई व्यक्ति उनके प्रति कैसे समर्पित हो सकता है या उनकी पारलौकिक सेवा कैसे कर सकता है? ऐसे सामान्य व्यक्ति के लिए श्रील शुकदेव गोस्वामी द्वारा दिया गया एक व्यावहारिक सुझाव है कि कैसे कोई व्यक्ति तर्कणा और धारणा द्वारा भगवान का अनुभव कर सकता है. वास्तव में भगवान हमारी वर्तमान भौतिक इंद्रियों द्वारा इंद्रियगोचर नहीं है, लेकिन जब व्यक्ति व्यावहारिक सेवा प्रवृत्ति द्वारा भगवान की उपस्थिति पर विश्वास करता है, तब भगवान की दया द्वारा प्रकटन होता है, और भगवान का ऐसा विशुद्ध भक्त भगवान की उपस्थिति को हमेशा और सभी ओर अनुभव कर सकता है. वह अनुभव कर सकता है कि बुद्धि परम भगवान के व्यक्तित्व के समग्र अंश परमात्मा की रूप-दिशा है. सभी व्यक्तियों की संगति में परमात्मा की उपस्थिति का अनुभव करना बहुत कठिन नहीं है, सामान्य व्यक्ति के लिए भी. प्रक्रिया इस प्रकार है. वह इसका अनुभव अचानक शायद नहीं कर सकेगा, लेकिन थोड़ी बुद्धि लगाकर वह अनुभव कर सकता है कि वह शरीर नहीं है. वह अनुभव कर सकता है कि हाथ, पाँव, सिर, बाल और अंग सभी उसके शरीर के अंश हैं, लेकिन ऐसे जैसे कि हाथ, पाँव, सिर इत्यादि, उसके आत्म के रूप में नहीं पहचाने जा सकते. इसलिए केवल बुद्धि का प्रयोग करके वह स्वयं को अन्य चीज़ों से अलग पहचान कर सकता है. इसलिए सहज निष्कर्ष यही है कि जीव, चाहे मानव या पशु, दृष्टा है, और वह अपने अलावा सभी चीज़ें देखता है, इसलिए दृष्टा और दृश्य में अंतर होता है, अब, थोड़ी बुद्धि लगाकर हम सहमत हो सकते हैं कि जीव जो सामान्य दृष्टि से अपने इतर वस्तुओं को देखता है, स्वतंत्र रूप से देखने या गति करने के लिए शक्ति नहीं रखता. हमारी क्षुद्र गतिविधियाँ और बोध प्रकृति द्वारा विभिन्न संयोजनों में हम तक पहुँचाई गई ऊर्जा के विभिन्न रूपों पर निर्भर करते हैं. हमारे बोध और कर्मों की इंद्रियाँ, अर्थात्, 1) सुनने, 2) स्पर्श, 3) दृष्टि, 4) स्वाद और 5) गंध की हमारी पाँच इंद्रियाँ, साथ ही हमारी पाँच कर्मेंद्रियाँ 1) हाथ, 2) पाँव, 3) वाक्, 4) निकास के अंग और 5) जनन अंग, और 1) मष्तिष्क, 2) बुद्धि औऱ 3) अंहकार नामक हमारी तीन गौण इंद्रियाँ, भी प्राकृतिक ऊर्जा के स्थूल या गौण रूपों की विभिन्न व्यवस्थआओं द्वारा हम तक पहुँचाई जाती हैं. और यह भी समान रूप से प्रमाणित है कि हमारी धारणा के पात्र प्राकृतिक ऊर्जा द्वारा लिए गए रूपों के अटूट क्रमपरिवर्तन और संयोजन के अलावा और कुछ नहीं हैं. चूँकि यह निष्कर्ष रूप में प्रमाणित करता है कि सामान्य जीवों के पास बोध या गति की कोई स्वतंत्र शक्ति नहीं होती, और जैसा कि हम निस्संदेह अनुभव करते हैं कि हमारा अस्तित्व प्रकृति की ऊर्जा के अनुकूल होता है, हम निष्कर्ष निकालते हैं कि देखने वाला आत्मा होता है, और यह कि इंद्रियाँ और साथ ही बोध के पात्र भौतिक होते हैं. दृष्टा का आध्यात्मिक गुण भौतिक रूप से बद्ध अस्तित्व की सीमित स्थिति से असंतुष्टि में लक्षित होता है. आत्मा और पदार्थ में यही अंतर है. कुछ कम बुद्धिमत्तापूर्ण तर्क हैं कि पदार्थ किसी विशिष्ट जैविक विकास के रूप में देखने और गति करने की शक्ति देता है, लेकिन ऐसा तर्क इसलिए स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि कोई भी प्रायोगिक प्रमाण नहीं है कि पदार्थ ने कहीं भी जीव को उत्पन्न किया है. भविष्य का विश्वास मत कीजिए, कितना भी लुभावना है. भविष्य में पदार्थ के आत्मा में विकास से संबंधित फालतू बातें वास्तविकता में मूर्खतापूर्ण हैं क्योंकि किसी भी पदार्थ ने संसार के किसी भी भाग में देखने या गतिमान होने की शक्ति विकसित नहीं की है. इसलिए यह निश्चित है कि पदार्थ और आत्मा दो भिन्न पहचानें हैं, और इस निष्कर्ष पर बुद्धि के उपयोग से पहुँचा गया है. अब हम इस बिंदु पर आते हैं कि जो चीजें बुद्धि के थोड़े से उपयोग द्वारा देखी जाती हैं वे चेतन नहीं हो सकती हैं जब तक कि हम किसी को बुद्धि के उपयोगकर्ता या निर्देशक के रूप में स्वीकार नहीं करते हैं. बुद्धि कुछ उच्चतर विद्वानों के समान एक दिशा देती है, और बिना बुद्धि के उपयोग के जीव देख नहीं सकते या गतिमान नहीं हो सकते, या खा नहीं सकते या कुछ भी नहीं कर सकते हैं. जब कोई बुद्धि का लाभ उठाने में विफल हो जाता है तो वह एक विक्षिप्त व्यक्ति बन जाता है, और इसलिए एक जीव बुद्धि पर या किसी श्रेष्ठ व्यक्ति के निर्देश पर निर्भर होता है. ऐसी बुद्धि सर्वव्यापी है. हर जीव की अपनी बुद्धि होती है, और यह बुद्धि, किसी उच्चतर विद्वान का निर्देश होते हुए, वैसी ही है, जैसे कोई पिता अपने पुत्र को निर्देश दे रहा हो. उच्चतर विद्वान, जो कि प्रत्येक जीव के भीतर उपस्थित है और निवास करता है, वही परमात्मा है.

स्रोत : अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी) “श्रीमद् भागवतम्”, द्वितीय सर्ग, अध्याय 2- पाठ 35

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