“ब्रम्ह संहिता (5.52) में सूर्य की गति की पुष्टि की गई है: यसज्नय भ्रमति संभ्रत्काल-चक्रः. सूर्य भगवान के रथ में, सूर्य पर्वत के शिखर पर संवत्सर नाम की एक कक्षा में, मेरू पर्वत की परिक्रमा करते हुए यात्रा करता है. उत्तर दिशा की ओर सूर्य का पथ उत्तरायण कहलाता है, और दक्षिण दिशा में उसका पथ दक्षिणायन कहलाता है. एक दिशा देवताओं के लिए दिन का प्रतिनिधित्व करती है, औऱ दूसरी उनकी रात्रि का.

सूर्य स्थिर नहीं है; वह भी दूसरे ग्रहों के समान गतिशील है. सूर्य की गतिशीलता रात और दिन की अवधि तय करती है. जब सूर्य भूमध्य से उत्तर की ओर जाता है, तब वह दिन के समय धीमी गति से और रात्रि में बहुत तेज़ी से चलता है, इस प्रकार दिन के समय की अवधि बढ़ती है और रात के समय की अवधि घट जाती है. उसी प्रकार, जब सूर्य भूमध्य के दक्षिण की ओर गतिशील होता है, तब इसका ठीक उलटा होता है–दिन की अवधि घट जाती है, और रात्रि की अवधि बढ़ जाती है. जब सूर्य कर्कट राशि में प्रवेश करता है और फिर सिंह राशि में गति करता है और उसी प्रकार धनु-राशि में से गुज़रता है, तो उसका मार्ग दक्षिणायन, दक्षिणी मार्ग कहलाता है, और जब सूर्य मकर राशि और उसके बाद कुंभराशि से गुज़रता है और आगे मिथुन राशि से, तो उसका मार्ग उत्तरायण, उत्तरी मार्ग कहलाता है. जब सूर्य मेष और तुला राशि से गुज़रता है, तब दिन और रात की अवधि समान होती है. जब वह वृषभ के नेतृत्व वाली पाँच राशियों से गुज़रता है, तो दिन की अवधि (कर्क) तक बढ़ती है, और फिर प्रत्येक माह आधे घंटे की गति से धीरे धीरे घटती जाती है, जब तक कि दिन और रात फिर से समान (तुला में) नहीं हो जाते. जब सूर्य वृश्चिक से आरंभ होने वाली पाँच राशियों से गुज़रता है, तो दिन की अवधि (मकर राशि तक) घटती है, और फिर धीरे धीरे हर महीने बढ़ती जाती है, जब तक कि दिन और रात समान अवधि के न हो जाएँ (मेष राशि में). जब तक सूर्य दक्षिण की ओर गति करता है दिन लंबे होते जाते हैं, और जब वह उत्तर की ओर गति करता है तब रात लंबी होती जाती है.

सूर्य मानसोत्तर पर्वत की हर ओर से वृत्ताकार में गति करता है जिसकी लंबाई 95,100,000 योजन [760,800,000 मील] है. मानसोत्तर पर्वत, जो सुमेरु पर्वत के पूर्व में स्थित है, वह स्थान है जिसे देवधानी के रूप में जाना जाता है, जिसके स्वामी राजा इंद्र हैं. उसी प्रकार, दक्षिण में एक स्थान साम्यमणि है, जिस पर यमराज का अधिकार है, पश्चिम में एक स्थान को निमलोचनि के रूप में जाना जाता है, जिस पर वरुण का अधिकार है, और उत्तर में विभावरी नाम का एक स्थान है, जिस पर चंद्र-देवता का अधिकार है. सूर्योदय, दोपहर, सूर्यास्त और मध्यरात्रि इन सभी स्थानों पर निर्दिष्ट समयों के अनुसार होते हैं, इस प्रकार सभी जीवों को उनके विभिन्न कर्तव्यों में लगाते हैं और उनके कर्तव्य पालन को समाप्त भी करते हैं.

दोपहर में सुमेरु पर्वत पर रहने वाले जीव हमेशा बहुत उष्ण होते हैं, क्योंकि उनके लिए सूर्य हमेशा उनके शीर्ष पर होता है. यद्यपि सूर्य घड़ी की उलटी दिशा में गति करता है, तारामंडल के सम्मुख रहते हुए, सुमेरु पर्वत उसके वाम ओर होता है, वह घड़ी की दिशा में गति भी करता है और प्रतीत होता है कि पर्वत उसके दाँयी ओर है क्योंकि वह दक्षिणावर्त वायु से प्रभावित होता है. उन बिंदुओं के देशों के लोग जो उन विपरीत बिंदुओं पर हैं जहाँ सूर्य को उदित होते हुए पहले देखा जाता है, वे सूर्य को अस्त होता देखेंगे, और यदि उस बिंदु से एक सीधी रेखा खींची जाए जहाँ सूर्य दोपहर के समय हो, तो रेखा के विपरीत बिंदु पर स्थित देशों के लोगों को मध्यरात्रि का अनुभव होगा. उसी प्रकार, यदि जहाँ सूर्य अस्त हो रहा हो वहाँ रहने वाले लोग ठीक विपरीत बिंदु के देशों में जाएँ, तो वे सूर्य की समान स्थिति को नहीं देखेंगे.

जब सूर्य देवधानी, इंद्र के निवास से साम्यमणि, यमराज के निवास, की यात्रा करता है, तो वह 23,775,000 योजन [190,200,000 मील] की यात्रा पंद्रह घातिकाओं (छः घंटे) में करता है. सूर्य की कुल कक्षा उसकी चार गुणा, या 95,100,000 योजन (760,800,000 मील) होती है. यमराज के निवास से सूर्य निम्लोचनि, वरुण के निवास, वहाँ से विभावरी, चंद्र-देवता के निवास, और वहाँ से फिर से इंद्र के निवास की यात्रा करता है. इसी विधि से, चंद्रमा, अन्य नक्षत्रों के साथ, आकाशीय क्षेत्र में दृश्यमान होता है और फिर अस्त हो जाता है, फिर दोबारा दृश्यमान हो जाता है.

इस प्रकार, सूर्य-देवता का रथ, जो त्रयीमय है, या ओम भूर्भूवः स्वः द्वारा पूजित है, एक मुहूर्त में 3,400,800 योजन [27,206,400 मील] की गति से ऊपर वर्णित चार निवासों से होते हुए यात्रा करता है. सूर्यदेव के रथ में केवल एक पहिया होता है, जिसे संवत्सर के नाम से जाना जाता है. बारह मासों की गणना उसकी छड़ियों के रूप में की जाती है, छः ऋतुएँ उसके हाले के खंड होती हैं, और तीन चतुर्-मास्य की अवधियाँ उसकी त्रि-खंडीय धुरी होती हैं. पहिए की धुरी का एक भाग सुमेरु पर्वत के शिखर पर टिका हुआ है, और दूसरा मानसोत्तर पर्वत पर स्थित है. धुरी के बाहरी छोस से चिपका हुआ, पहिया लगातार मानसोत्तर पर्वत पर वैसे घूमता है जैसे तेल निकालने की घानी. जैसा तेल की घानी में होता है, यह पहली धुरी एक दूसरी धुरी से संपर्क में होती है, जो एक चौथाई लंबी [3,937,500 योजन, या 31,500,000 मील] होती है. इस दूसरी धुरी का ऊपरी छोर वायु की रस्सी से ध्रुवलोक से जुड़ा होता है.

सूर्य देव के रथ की गाड़ी का 3,600,000 योजन [28,800,000 मील] लंबी और एक चौथाई चौड़ी [900,000 योजन, या 7,200,000 मील] होने का अनुमान है. रथ के घोड़ों जिन्हें, गायत्री और अन्य वैदिक छंदो का नाम दिया गया है, उन्हें अरुणदेव द्वारा 900,000 योजन चौड़े जोत में हाँका जाता है. इस रथ पर सूर्य-देवता लगातार सवारी करते हैं. सूर्य देवता के रथ में जोते गए सात घोड़ों का नाम गायत्री, भृति, उष्णीक, जगति, त्रिष्टुप, अनुष्टुप और पंक्ति हैं. विभिन्न वैदिक छंदों के ये नाम सात घोड़ों को नामित करते हैं जो सूर्यदेव के रथ का वहन करते हैं. यद्यपि अरुणदेव सूर्य देव के आगे की ओर बैठते हैं और रथ को चलाने और घोड़ों को नियंत्रित करने में लगे होते हैं, वे सूर्य देव की ओर पीछे की ओर देखते हैं.

वलिखिल्य नाम के साठ सहस्त्र संत व्यक्ति हैं, जो प्रत्येक एक अंगूठे के आकार के हैं, जो सूर्य देवता के सम्मुख होते हैं और उनकी महिमा में स्तुति करते हैं. उसी प्रकार, चौदह अन्य संत, गंधर्व, अप्सरा, नाग, यक्ष, राक्षस और देवता, जिन्हे दो के समूहों में बांटा गया है, प्रत्येक माह भिन्न नाम धारण करते हैं, और परम भगवान सूर्य-देव, जिनके कई नाम हैं, की पूजा करने के लिए लगातार विभिन्न अनुष्ठानों का आयोजन करते हैं, सर्व शक्तिमान सूर्य देवता की पूजा करते हुए, गंधर्व उनके समक्ष गाते हैं, अप्सरा नृत्य करती हैं, निशाचर रथ का पीछा करते हैं, पन्नग रथ का ऋंगार करते हैं, यक्ष रथ की रक्षा करते हैं, और वलिखिल्य नामक संत सूर्य-देवता के चहुँ ओर रहते हुए स्तुति करते हैं. चौदह सहयोगियों के सात समूह पूरे ब्रह्मांड में नियमित रूप से हिम, उष्णता और वर्षा के लिए उचित समय का व्यवस्थापन करते हैं. भूमंडल से होते हुए इस कक्षा में, सूर्य-देवता 95,100,000 योजन [760,800,000 मील] की यात्रा एक क्षण में 2000 योजन और दो क्रोष की गति से करते हैं.

स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), संस्करण, “श्रीमद् भागवतम्”, पाँचवा सर्ग, अध्याय 21

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