भगवान के परम व्यक्तित्व को सर्वोच्च इच्छा कहा जाता है. सब कुछ सर्वोच्च इच्छा से ही हो रहा है. इसलिए, कहा जाता है कि सर्वोच्च इच्छा के बिना घास का एक तिनका भी नहीं हिलता है. समान्यतः यह सुझाया जाता है कि पवित्र कर्मों के कर्ताओँ को उच्च ग्रह मंडलों में पदोन्नत किया जाता है, भक्तों को वैकुंठ या आध्यात्मिक संसार में पदोन्नत किया जाता है, और अवैयक्तिक अटकलबाज़ों को अवैयक्तिक ब्राम्हण दीप्ति तक उन्नत किया जाता है; लेकिन कभी-कभी ऐसा होता है कि अजामिल जैसा एक भ्रष्ट केवल नारायण के नाम का जाप करके तुरंत वैकुंठ लोक में पदोन्नत हो जाता है. यद्यपि जब अजामिल ने इस स्पंदन का उच्चारण किया तो उसका आशय अपने पुत्र नारायण को बुलाना था, भगवान नारायण ने इसे गंभीरता से लिया और तुरंत उसे वैकुंठलोक में पदोन्नत कर दिया, उसकी पृष्ठभूमि के बावजूद, जो पापमय कृत्यों से भरी थी. उसी समान राजा दक्ष हमेशा बलिदान करने के पवित्र कर्मों में लगे रहते थे, फिर भी भगवान शिव के साथ भ्रान्ति होने पर, उनकी घोर परीक्षा ली गई थी. इसलिए निष्कर्ष यह कि, सर्वोच्च इच्छा ही परम न्याय है; इस पर कोई तर्क नहीं कर सकता. इसलिए एक विशुद्ध भक्त सभी परिस्थितियों में भगवान की सर्वोच्च इच्छा में, उसे पूर्ण पवित्र स्वीकार करते हुए समर्पण करता है.

तत्तेनुकंपम् सुसमिक्षमणो भुंजन एवत्म-कृतम् विपकम
हृद-वग-वपुर्भिर विदधन नमस्ते जीवेत यो मुक्ति-पदे स दया-भक्

(भग. 10.14.8) इस श्लोक का उद्देश्य यह है कि जब कोई भक्त किसी विपत्ति की स्थिति में होता है, तो वह इसे परम भगवान के आशीर्वाद के रूप में लेता है और अपने पिछले कुकर्मों के लिए स्वयं उत्तरदायित्व लेता है. ऐसी परिस्थिति में, वह और भी अधित भक्तिमय सेवा अर्पित करता है और डिगता नहीं है. भक्तिमय सेवा में रत, मन की ऐसी स्थिति में रहने वाला व्यक्ति आध्यात्मिक संसार में पदोन्निति के लिए सबसे योग्य प्रत्याशी होता है. दूसरे शब्दों में, ऐसे भक्त का आध्यात्मिक संसार में पदोन्नति का दावा सभी स्थितियों में निश्चित होता है.

स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी) “श्रीमद् भागवतम्”, चतुर्थ सर्ग, अध्याय 6- पाठ 45

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