सभी सुखी होने का प्रयत्न कर रहे हैं, सुखम् अस्यत्मनो रूपम सर्वेहोप्रतिष्ठनुः : जब जीव अपने मूल आध्यात्मिक रूप में होता है, वह स्वभाव से सुखी होता है. आध्यात्मिक जीव के लिए कष्टों का कोई प्रश्न नहीं होता. जैसा कि कृष्ण हमेशा सुखी रहते हैं, जीव भी, जो उनके अंश हैं, स्वभाव से सुखी होते हैं, किंतु इस भौतिक संसार में रखे जाने और कृष्ण से अपना शाश्वत संबंध भूल जाने पर, जीव उनकी वास्तविक प्रकृति भूल गए हैं. क्योंकि हममें से प्रत्येक कृष्ण का अंश है, हमारा उनके साथ बहुत स्नेहिल संबंध है, किंतु चूँकि हम अपनी पहचान भूल गए हैं, और शरीर को आत्म समझ रहे हैं, हमें जन्म, मृत्यु, वृद्ध आयु और रोग के कष्टों का सामना करना पड़ता है. भौतिकवादी जीवन में यह भ्रान्ति बनी रहती है, जब तक कि व्यक्ति कृष्ण के साथ अपना संबंध नहीं समझ जाता. बद्ध आत्मा द्वारा सुख की खोज निश्चित ही भ्रामक है, सभी सुखी होने का प्रयास कर रहे हैं क्योंकि, जैसा कि पिछले श्लोक में बताया गया है, सुखम अस्यतमनो रूपम् सर्वेहोप्रतिष्ठनुः : जब जीव अपने मूल आध्यात्मिक रूप में होता है, वह स्वभाव से सुखी होता है. आध्यात्मिक जीव के लिए कष्टों का कोई प्रश्न नहीं होता. ठीक एक मृग की भाँति, जो अज्ञान के कारण घास से ढँके कुँए के भीतर जल नहीं देख सकता, किंतु अन्य स्थानों पर जल के पीछे भागता है, जीव भी भौतिक शरीर के आवरण से ढँका रहते हुए स्वयं के भीतर सुख नहीं देख पाता, किंतु भौतिक संसार में सुख के पीछे भागता है.

स्रोत- अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, सातवाँ सर्ग, खंड 13- पाठ 28

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