एक वैष्णव अभक्तों के लिए सदैव ईर्ष्या का पात्र होता है, भले ही वह अभक्त उसका पिता हो. एक व्यावहारिक उदाहरण देने हेतु, हिरण्यकशिपु प्रह्लाद महाराज से ईर्ष्या रखता था, किंतु भक्त के प्रति यह ईर्ष्या हिरण्यकशिपु के लिए हानिकारक थी, प्रह्लाद के लिए नहीं. हिरण्यकशिपु द्वारा किया गया प्रत्येक कर्म अपने पुत्र प्रह्लाद महाराज के विरुद्ध था जिसे भगवान के परम व्यक्तित्व ने बहुत गंभीरता से लिया, और इसलिए जब हिरण्यकशिपु प्रह्लाद को मार डालने वाला था, तो भगवान स्वयं प्रकट हुए और हिरण्यकशिपु का वध किया. भक्त के विरुद्ध लगाया गया किसी व्यक्ति का तथाकथित बल, उसी को हानि पहुँचाता है जो उसका उपयोग कर रहा है. इस प्रकार कर्ता को हानि पहुँचती है, ना कि पात्र को.

यह कहा जाता है कि रत्न बड़ा मूल्यवान होता है, किंतु जब वह किसी सर्प के फन पर होता है, तो उसके मूल्य के बावजूद वह खतरनाक होता है. उसी प्रकार, जब एक भौतिकवादी अभक्त शिक्षा और तप में बड़ी सफलता पाता है, तो वह सफलता समस्त समाज के लिए खतरनाक होती है. उदाहरण के लिए, तथाकथित निपुण वैज्ञानिकों ने आणविक हथियारों का अविष्कार किया जो कि समस्त मानवता के लिए घातक हैं. इसलिए कहा जाता है, मणिना भूषितः सर्पः किं असौ न भंयकरः. मणि धारण किया हुआ सर्प उतना ही घातक होता है जितना कि बिना मणि वाला सर्प. दुर्वासा मुनि रहस्यमय शक्तियों के साथ एक बहुत ज्ञानी ब्राम्हण थे, किंतु वे एक सज्जन नहीं थे, इसलिए नहीं जानते थे कि अपनी शक्ति का उपयोग कैसे किया जाए. इसलिए वे बड़े खतरनाक थे. भगवान का परम व्यक्तित्व का झुकाव ऐसे किसी खतरनाक व्यक्ति की ओर नहीं होता जो अपनी शक्ति का उपयोग व्यक्तिगत हेतु के लिए करता हो. इसलिए, प्रकृति के नियमों द्वारा, सत्ता का ऐसा दुरुपयोग अंततः समाज के लिए नहीं बल्कि उस व्यक्ति के लिए खतरनाक है जो इसका दुरुपयोग करता है.

स्रोत – अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद् भागवतम्” , नौवाँ सर्ग, अध्याय 4 – पाठ 69 व 70

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