महाराज परीक्षित का अनुसरण करते हुए, राज्य के सभी प्रमुख अधिकारियों का यह कर्तव्य है कि वे सुनिश्चित करें कि तप, स्वच्छता, दया और सत्य नामक धर्म के सिद्धांत राज्य में स्थापित हों, और अधर्म के सिद्धांत, अहंकार, अवैध स्त्री संबंध या वेश्यावृत्ति, नशा और असत्य को हर संभव विधि से रोका जाए. धर्म के सिद्धांत कुछ रूढ़ियों या मानव-निर्मित फ़ार्मुलों पर नहीं खड़े होते हैं, बल्कि वे चार नियमों, जैसे तपस्या, स्वच्छता, दया और सच्चाई के पालन पर निर्भर होते हैं. लोगों को बचपन से ही बड़े पैमाने पर इन सिद्धांतों का पालन करना सिखाया जाना चाहिए. तपस्या का अर्थ स्वेच्छा से उन चीजों को स्वीकार करना है जो शरीर के लिए बहुत आरामदायक नहीं हो सकती हैं, लेकिन आध्यात्मिक बोध के लिए अनुकूल होती हैं, उदाहरण के लिए, उपवास. महीने में दो बार या चार बार उपवास करना एक प्रकार की तपस्या है जिसे केवल आध्यात्मिक रूप से आत्मिक बोध के लिए स्वीकार किया जा सकता है, न कि राजनीतिक या अन्य किसी उद्देश्य के लिए. जो उपवास आत्म-साक्षात्कार के लिए नहीं बल्कि अन्य उद्देश्य के लिए हो, भगवद्-गीता (17.5-6) में उनकी निंदा की गई है.

उसी समान, स्वच्छता मन और शरीर दोनों के लिए आवश्यक है. केवल शारीरिक स्वच्छता कुछ हद तक मदद कर सकती है, लेकिन मन की सफाई आवश्यक है, और भगवान का गुणगान करने से इस पर प्रभाव पड़ता है. परम भगवान की महिमा के बिना कोई भी वयक्ति इकट्ठी हो गई मानसिक धूल को साफ नहीं कर सकता है. एक ईश्वरविहीन सभ्यता मन को शुद्ध नहीं कर सकती क्योंकि उसे ईश्वर का कोई पता नहीं है. और बस इसी कारण एसी सभ्यता के लोग अच्छी शिक्षा नहीं ले सकते, हालाँकि वे भौतिक रूप से वे साधन संपन्न हों. हमें चीज़ों को उनके परिणामी कर्मों से देखना होगा. कलियुग में मानव सभ्यता का परिणामी कर्म असंतोष है, इसलिए हर कोई मन की शांति पाने के लिए चिंतित है. मन की यह शांति सतयुग में मानव के उपरोक्त गुणों के अस्तित्व के कारण पूर्ण थी. त्रेता-युग में ये गुण धीरे-धीरे कम होकर तीन चौथाई रह गए, द्वापर में आधे, और कलियुग में केवल एक चौथाई, और वर्तमान असत्य के कारण वह भी धीरे-धीरे लुप्त हो रहे हैं. अहंकार, चाहे कृत्रिम या वास्तविक, द्वारा तपस्या का परिणामी कर्म बेकार हो जाता है; नारी के समागम के अत्यधिक आकर्षण के कारण, स्वच्छता नष्ट हो जाती है; नशे की अत्य़धिक व्यसन के कारण, दया नष्ट हो जाती है; और अत्धिक झूठे प्रचार के कारण, सत्य का नाश हो जाता है. भगवत्-धर्म का पुनरुत्थान मानव सभ्यता को सभी प्रकार की बुराइयों का शिकार होने से बचा सकता है.

स्रोत:अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, प्रथम सर्ग, अध्याय 17 - पाठ 25-38
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