भौतिक शरीर के संबंध में एक तथ्यात्मक सत्य भी कुछ मात्रा में असत्य के बिना अस्तित्वमान नहीं रह सकता. मायावादी कहते हैं, ब्रम्ह सत्यम् जगन्मिथ्या : “आत्मा सत्य है, और बाहीय ऊर्जा असत्य है.” वैष्णव दार्शनिक, यद्यपि, मायावादी दर्शन से सहमत नहीं होते. भले ही तर्क के लिए भौतिक संसार को असत्य स्वीकार किया जाए, तो मायावी ऊर्जा में अटका जीव शरीर की सहायता के बिना उससे बाहर नहीं आ सकता. शरीर की सहायता के बिना, व्यक्ति धार्मिक प्रणाली का निर्वाह नहीं कर सकता, न ही दार्शनिक दक्षता का अनुमान कर सकता है. इसलिए, फूल और फल (पुष्प-फलम) शरीर के परिणाम से अर्जित करने होते हैं. शरीर की सहायता के बिना वह फल नहीं पाया जा सकता. इसलिए वैष्णव दर्शन युक्तवैराग्य का सुझाव देता है. ऐसा नहीं है कि शरीर के पालन के लिए सारा ध्यान भटका देना चाहिए, किंतु समान रूप से व्यक्ति के शरीर की देखभाल को उपेक्षित नहीं करना चाहिए. जब तक शरीर का अस्तित्व है व्यक्ति पूर्णता से वैदिक निर्देशों का अध्ययन कर सकता है, और इस प्रकार जीवन के अंत में व्यक्ति पूर्णता पा सकता है. यह भगवद्-गीता (8.6) में बताया गया है: यम यम वापि भवम त्याजति अंते कलेवरम. मृत्यु के समय सभी वस्तुओं का परीक्षण होता है. इसलिए, भले ही शरीर अस्थायी है, अमर नहीं है, तब भी व्यक्ति उससे सर्वश्रेष्ठ सेवा ले सकता है और अपने जीवन को श्रेष्ठ बना सकता है.

स्रोत – अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद् भागवतम्” , आठवाँ सर्ग, अध्याय 19 – पाठ 39

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