वर्णाश्रम पद्धति में, शुद्धिकरण का पहला अनुष्ठान गर्भाधान होता है, जिसका निर्वाह संभोग के समय अच्छी संतान की प्राप्ति हेतु मंत्रों के साथ किया जाता है. उस व्यक्ति को भी ब्रम्हचारी के रूप में स्वीकार किया जाता है जो संभोग का उपयोग इंद्रिय सुख हेतु नहीं बल्कि शुद्धिकरण की प्रक्रिया के अनुसार केवल संतान प्राप्ति के लिए करता है. वैदिक जीवन के सिद्धांतों का उल्लंघन करके व्यक्ति को इंद्रिय सुख के लिए वीर्य को बर्बाद नहीं करना चाहिए. भले ही कोई द्विजों, दोबारा जन्म लेने वाले, के परिवार में जन्मा हो, यदि वे शुद्धिकरण प्रक्रिया का पालन नहीं करते तो उसे द्विज-बंधु–द्विजों में से एक नहीं, लेकिन द्विज का मित्र कहा जाता है. इस संपूर्ण प्रणाली का उद्देश्य अच्छी जनसंख्या का निर्माण करना है. जैसा कि भगवद-गीता में कहा गया है, जब महिलाएँ प्रदूषित होती हैं तो जन-साधारण वर्ण-संकर होती है, और जब वर्णसंकर जनसंख्या बढ़ती है, तो पूरे संसार की स्थिति नारकीय हो जाती है. इसलिए, समस्त वैदिक साहित्य वर्ण-संकर जनसंख्या निर्मित करने के विरुद्ध कड़ी चेतावनी देते हैं. जब वर्ण-संकर जनसंख्या होती है, तब शांति और संपन्नता के लिए लोगों पर ठीक से नियंत्रण नहीं रखा जा सकता, भले ही महान विधान सभाएँ, संसद और समान संस्थाएँ विद्यमान हों.

 

स्रोत- अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, सातवाँ सर्ग, खंड 11 – पाठ 13

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