“व्यक्ति सामान्यतः विभिन्न प्रकार के धार्मिक सिद्धांतों का पालन करता है या भौतिक प्रकृति की विधियों द्वारा उसे दिए गए शरीर के अनुसार विभिन्न व्यावसायिक कर्तव्यों का पालन करता है. यद्यपि, इस श्लोक में, वास्तविक धार्मिक सिद्धांतों की व्याख्या की गई है. व्यक्ति को अन्य को दुखी देख कर अप्रसन्न और अन्यों को सुखी देखकर प्रसन्न होना चाहिए. आत्मवत सर्व-भूतेषु : व्यक्ति को अन्य लोगों के सुख और दुख का अनुभव स्वयं के अनुभव के रूप में करना चाहिए. यह इसी आधार पर है कि बौद्ध धर्म का अहिंसा का सिद्धांत–अहिंसा परम धर्मः–स्थापित हुआ. हमें पीड़ा होती है यदि हमें कोई विचलित करता है, और इसलिए हमें अन्य जीवों को कष्ट नहीं देना चाहिए. भगवान बुद्ध का अभियान अनावश्यक रूप से पशुओं का वध रोकना था, और इसीलिए उन्होंने शिक्षा दी कि अहिंसा ही सबसे बड़ा धार्मिक सिद्धांत है.

व्यक्ति पशुओं का वध करना जारी रखते हुए एक धार्मिक व्यक्ति नहीं हो सकता. वह सबसे बड़ा ढोंग है. यीशु मसीह ने कहा था, “हत्या मत करो”, किंतु ढोंगी लोग स्वयं को ईसाई दिखाते हुए भी हज़ारों वधशालाएँ बनाए हुए हैं. इस श्लोक में ऐसे ढोंग की ही निंदा की गई है. व्यक्ति को अन्य लोगों को सुखी देख कर प्रसन्न होना चाहिए, और उसे अन्य लोगों को दुखी देख कर दुखी होना चाहिए. इस सिद्धांत का पालन करना चाहिए. दुर्भाग्य से वर्तमान समय में तथाकथित परोपकारी और मानवतावादी निरीह पशुओं के जीवन के मूल्य पर मानवता की प्रसन्नता की वकालत करते हैं. यहाँ ऐसा न करने का सुझाव दिया गया है. यह श्लोक स्पष्ट रूप से कहता है कि व्यक्ति को सभी जीवों के प्रति करुणामयी होना चाहिए. चाहे वे मानव, पशु, वृक्ष या पोधे हों, सभी जीव भगवान के परम व्यक्तित्व की संतानें हैं. भगवान कृष्ण भगवद गीता (14.4) में कहते हैं:

सर्व-योनिषु कौंतेय मूर्तयः सम्भवन्ति यः
तस्म ब्रह्म महद् योनिर् अहम् बीज-प्रदः पिता

“”हे कुंती पुत्र, यह समझा जाना चाहिए कि जीवन की सभी प्रजातियां, इस भौतिक प्रकृति में जन्म से संभव होती हैं, और यह कि मैं ही बीज देने वाला पिता हूँ.”” इन जीवों के विभिन्न रूप केवल उनके बाहरी वस्त्र हैं. प्रत्येक जीवित प्राणी वास्तव में एक आत्मा है, भगवान का एक अंश है. इसलिए व्यक्ति को केवल एक प्रकार के जीवों का पक्ष नहीं लेना चाहिए. एक वैष्णव सभी जीवों को भगवान के अंश के रूप में देखता है. जैसा कि भगवान भगवद्-गीता (5.18 व 18.54) में कहते हैं:

विद्या-विनय-संपन्ने ब्रम्हणे गवि हस्तिनी
सुनि चैव स्वपाके च पंडितः सम-दर्शिनः

“विनम्र साधु, सच्चे ज्ञान के गुण द्वारा, एक सभ्य ब्राम्हण, एक गाय, एक हाथी, एक कुत्ते और एक कुत्ता खाने वाले (चांडाल) को समान दृष्टि से देखता है.”

ब्रम्ह-भूताः प्रसन्नात्मा न शोचति न कांक्षति
समः सर्वेषु भूतेषु मद्-भक्तिम् लभते परम

“वह जो पारलौकिक रूप से स्थिर हो जाता है, परम ब्राम्हण को तुरंत जान जाता है और पूर्ण आनंदमय बन जाता है.” वह न तो कभी विलाप करता है और न ही कुछ पाने की इच्छा रखता है; वह हर जीव के लिए समान रूप से उपलब्ध होता है. उस अवस्था में वह मेरे प्रति शुद्ध भक्ति सेवा अर्जित कर लेता है.” इसलिए एक वैष्णव, वास्तव में एक संपूर्ण व्यक्ति होता है क्योंकि वह अन्य को दुखी देख कर विलाप करता है और अन्य लोगों को सुखी देख कर आनंद का अनुभव करता है. एक वैष्णव परा-दुख-दुखी होता है; वह बद्ध आत्मा को भौतिकवाद की दुख भरी अवस्था में देख कर सदैव दुखी होता है. इसलिए एक वैष्णव हमेशा पूरे विश्व में कृष्ण चेतना का प्रचार करने में व्यस्त रहता है.”

अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम”, छठा सर्ग, अध्याय 10- पाठ 9

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