“चूँकि व्यक्ति भगवान के पवित्र नाम का जाप करके सरलता से उच्चतम सफलता अर्जित कर सकता है, तो कोई पूछ सकता है कि फिर इतने सारे वैदिक आनुष्ठानिक समारोह क्यों हैं और लोग उनकी ओर आकर्षित क्यों होते हैं. जैसा कि भगवद-गीता (15.15) में कहा गया है, वेदै च सर्वैर अहम् एव वेद्यः वेदों के अध्ययन का वास्तविक उद्देश्य भगवान कृष्ण के चरण कमलों तक पहुँचना है. दूर्भाग्य से, बुद्धिहीन लोग वैदिक यज्ञों से प्रभावित होकर भव्य बलि होते देखना चाहते हैं. वे चाहते हैं कि वैदिक मंत्रों का जाप किया जाए और इस तरह के समारोहों के लिए भारी मात्रा में धन खर्च किया जाए. कभी-कभी हमें ऐसे बद्धिहीन पुरुषों को प्रसन्न करने के लिए वैदिक आनुष्ठानिक समारोह करने पड़ते है.

कलि के इस युग में विशेष रूप से संकीर्तन मात्र ही पर्याप्त है. यदि संसार के विभिन्न भागों में हमारे मंदिरों के सदस्य विग्रह के समक्ष, विशेषकर श्री चैतन्य महाप्रभु के समक्ष संकीर्तन करें, तो वे परिपूर्ण रहेंगे. किसी अन्य प्रदर्शन की कोई आवश्यकता नहीं है. फिर भी, स्वयं को आदतों और मन में निर्मल रखने के लिए, विग्रह पूजा और अन्य नियामक सिद्धांतों की आवश्यकता होती है. श्रील जीव गोस्वामी का कहना है कि यद्यपि संकीर्तन जीवन की पूर्णता, के लिए पर्याप्त है, मंदिर में विग्रह की पूजा या अर्चना इसलिए जारी रहनी चाहिए ताकि भक्त स्वच्छ और शुद्ध बने रहें. इसलिए श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने सुझाव दिया है कि व्यक्ति को दोनों प्रक्रियाओं का पालन करे. हम समानांतर स्तर पर विग्रह पूजा और संकीर्तन करने के उनके सिद्धांत का कड़ाई से पालन करते हैं.”

स्रोत:अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, छठा सर्ग, अध्याय 3- पाठ 25

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