“कभी-कभी आधुनिक विचारक हतप्रभ रह जाते हैं जब वे नैतिक व्यवहार के मनोविज्ञान का अध्ययन करते हैं. यद्यपि प्रत्येक जीव का झुकाव आत्म-संरक्षण की ओर होता है, जैसा कि यहाँ कहा गया है, किंतु कभी-कभी व्यक्ति स्वेच्छा से परोपकारी या देशभक्ति गतिविधियों के माध्यम से स्वयं अपने प्रत्यक्ष हितों का त्याग करता है, जैसे दूसरों के लाभ के लिए अपना धन दे देना या राष्ट्रीय हित के लिए अपना जीवन देना. ऐसा तथाकथित निःस्वार्थ व्यवहार भौतिक आत्म-केंद्रितता और आत्म-संरक्षण के सिद्धांत का खंडन करता प्रतीत होता है.

जैसा कि इस श्लोक में बताया गया है, यद्यपि, कोई जीव अपने समाज, राष्ट्र, परिवार आदि की सेवा केवल इसलिए करता है क्योंकि स्नेह के ये पात्र मिथ्या अहंकार की विस्तारित अवधारणा का प्रतिनिधित्व करते हैं. एक देशभक्त स्वयं को एक महान राष्ट्र के महान सेवक के रूप में देखता है, और इस प्रकार वह अपने अहंकार की भावना को पूरा करने के लिए अपना जीवन बलिदान कर देता है. इसी प्रकार, यह सामान्य ज्ञान है कि एक व्यक्ति यह सोचकर बहुत प्रसन्नता का अनुभव करता है कि वह अपनी प्रिय पत्नी और बच्चों को सुख देने के लिए सब कुछ त्याग रहा है. मनुष्य स्वयं को अपने तथाकथित परिवार और समाज का निःस्वार्थ हितैषी देखकर बड़ा अहंकारमय सुख प्राप्त करता है. इस प्रकार, अपने मिथ्या अहंकार के गर्व की भावना को संतुष्ट करने के लिए, व्यक्ति अपनी प्राण देने के लिए भी तैयार हो जाता है. यह स्पष्ट रूप से विरोधाभासी व्यवहार भौतिक जीवन की व्याकुलता का एक और प्रदर्शन है, अ-भौतिक आत्मा की घोर अज्ञानता का प्रकटन होने के नाते जिसमें न तो तुक है और न ही तर्क है.”

स्रोत:अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), श्रीमद् भागवतम्, दसवाँ सर्ग, अध्याय 14 – पाठ 50

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