आध्यात्मिक जीवन के प्रारंभिक चरण में आत्म साक्षात्कार के लिए विभिन्न प्रकार के संयम, तप, और समान प्रक्रियाएँ होती हैं. यद्यपि, इन प्रक्रियाओं का निष्पादनकर्ता किसी भी भौतिक लालसा से रहित होता है, फिर भी वह आध्यात्मिक सेवा अर्जित नहीं कर सकता. और भक्ति सेवा अर्जित करने के लिए स्वयं ही आकांक्षा करना भी बहुत आशाजनक नहीं होती क्योंकि कृष्ण किसी भी व्यक्ति को भक्ति सेवा देना स्वीकार नहीं करते. कृष्ण सरलता से किसी व्यक्ति को भौतिक सुख या मुक्ति प्रदान कर सकते हैं, लेकिन वे किसी व्यक्ति को अपनी भक्ति सेवा में रखने के लिए सरलता से स्वीकृति नहीं देते. भक्ति सेवा वास्तव में एक शुद्ध भक्त की दया के माध्यम से ही प्राप्त की जा सकती है. चैतन्य-चरितामृत में कहा गया है: “आध्यात्मिक गुरु की दया से, जो एक शुद्ध भक्त होता है और कृष्ण की दया से व्यक्ति भक्ति सेवा के स्तर को प्राप्त कर सकता है. अन्य कोई मार्ग नहीं है.” भक्ति सेवा के लक्षण रूप गोस्वामी द्वारा विभिन्न धर्मग्रंथों के साक्ष्य के साथ वर्णित किए गए हैं. वे कहते हैं कि विशुद्ध भक्ति सेवा की छः विशेषताएँ हैं, जो इस प्रकार हैं. 1) शुद्ध भक्ति सेवा सभी प्रकार के भौतिक संकटों से तत्काल राहत दिलाती है. 2) शुद्ध भक्ति सेवा समस्त शुभता का प्रारंभ है. 3) शुद्ध भक्ति सेवा व्यक्ति को स्वतः ही पारलौकिक आनंद में स्थित कर देती है. 4) शुद्ध भक्ति सेवा बिरले ही प्राप्त होती है. 5) शुद्ध भक्ति सेवा रत रहने वाले मुक्ति की धारणा का उपहास करते हैं. 6) कृष्ण को आकर्षित करने का एकमात्र साधन शुद्ध भक्ति सेवा ही है. कृष्ण सर्व-आकर्षक हैं, किंतु शुद्ध भक्ति सेवा उन को भी आकर्षित करती है. इसका अर्थ है कि शुद्ध भक्ति सेवा पारलौकिक रूप से स्वयं कृष्ण से भी शक्तिशाली है, क्योंकि वह कृष्ण का शाश्वत पौरुष है.

स्रोत: अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2011 संस्करण, अंग्रेजी), “भक्ति का अमृत”, पृ. 3 व 4

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