शास्त्रों में पाँच प्रकार की मुक्तियाँ बताई गई हैं. एक होती है भगवान के परम व्यक्तित्व के साथ एक हो जाना, या अपनी वैयक्तिकता को त्याग कर परम आत्मा में विलीन हो जाना. इसे एकात्मतम कहते हैं. एक भक्त इस प्रकार की मुक्ति को कभी नहीं स्वीकारता है. अन्य चार मुक्तियाँ हैं: भगवान के ग्रह (वैकुंठ) तक पदोन्नत हो जाना, परम भगवान के साथ व्यक्तिगत रूप से संबंधित हो जाना, भगवान के समान ऐश्वर्य अर्जित करना और उनके जैसे ही शारीरिक गुण पा जाना. एक विशुद्ध भक्त, जैसाकि कपिल मुनि समझाते हैं, पाँच में से किसी भी प्रकार की मुक्ति की कामना नहीं रखता. वह विशेष रूप से भगवान के परम व्यक्तित्व के साथ एकत्व के प्रयास को तुच्छ मानता है. भगवान चैतन्य के महान भक्त, श्री प्रबोधानंद सरस्वती ने कहा है, कैवल्यम् नरकायते: “परम भगवान के साथ एक हो जाने की प्रसन्नता, जो मायावादियों की कामना होती है, उसे नारकीय माना जाता है.” ऐसा ऐक्य विशुद्ध भक्त के लिए नहीं है. ऐसे कई तथा-कथित भक्त हैं जो सोचते हैं कि बद्ध स्थिति में हम भगवान के परम व्यक्तित्व की पूजा कर सकते हैं लेकिन अंततः वह कोई व्यक्तित्व नहीं है; वे कहते हैं कि चूँकि परम सत्य अवैयक्तिक है, व्यक्ति समय विशेष के लिए अवैयक्तिक परम सत्य के व्यक्तिगत रूप की कल्पना कर सकता है, किंतु जैसे ही व्यक्ति मुक्त हो जाता है, पूजा रुक जाती है. यह अवधारणा मायावादियों द्वारा प्रस्तुत की जाती है. वास्तविकता में अवैयक्तिकतावादी परेम व्यक्तित्व के अस्तित्व में लीन नहीं होते बल्कि उनके व्यक्तिगत शारीरिक आलोक में लीन होते हैं, जिसे ब्रम्हज्योति कहा जाता है. यद्यपि वह ब्रम्हज्योति उनके व्यक्तिगत शरीर से भिन्न नहीं होती है, इस प्रकार का ऐक्य (भगवान के व्यक्तित्व की आभा में विलीन होना) विसुद्ध भक्त द्वारा स्वीकार नहीं किया जाता क्योंकि भक्त उनके अस्तित्व में वलीन होने के बजाय भगवान की सेवा के श्रेष्ठतर आनंद में रत होता है. भक्त हमेशा यह विचार करते हैं कि उनकी सेवा कैसे करें; वे परम भगवान की सेवा करने की विधियों और साधनों की कल्पना करते रहते हैं, यहाँ तक कि सबसे बड़ी भौतिक बाधाओं के बीच भी.

स्रोत: अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2007 संस्करण, अंग्रेजी), “देवाहुति के पुत्र, भगवान कपिल की शिक्षाएँ”, पृ. 205 व 206

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