“भगवद्-गीता (7.11) में भगवान कहते हैं, धर्मविरुद्धो भूतेषु कामो’स्मि: “मैं वह काम हूँ जो धार्मिक सिद्धांतों के विरुद्ध नहीं है.” भगवान के परम व्यक्तित्व द्वारा स्वीकृत यौन कर्म धर्म, धार्मिक सिद्धांत होता है, लेकिन इसका उद्देश्य इंद्रिय भोग नहीं है. संभोग के माध्यम से इंद्रिय भोग वैदिक सिद्धांतों में अनुमत नहीं है. व्यक्ति यौन जीवन की प्रवत्ति का अनुसरण केवल संतान प्राप्ति के लिए कर सकता है. इसलिए इस श्लोक में भगवान ने दक्ष से कहा है, “यह कन्या यौन जीवन के लिए तुम्हें केवल संतान प्राप्ति के लिए प्रस्तुत की गई है, किसी अन्य उद्देश्य के लिए नहीं. वह अत्यंत उर्वर है, और इसलिए तुम जितनी चाहो उतनी संतान उत्पन्न करने में समर्थ होगे.”

श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर इस संबंध में टिप्पणी करते हैं कि दक्ष को असीमित संभोग करने की सुविधा दी गई थी. दक्ष के पूर्वजन्म में वे दक्ष नाम से भी जाने जाते थे, लेकिन तप करते हुए उन्होंने भगवान शिव को अपमानित कर दिया था, और इसलिए उनके सिर के स्थान पर बकरे का सिर लगा दिया गया था. अपनी पतित स्थिति के कारण दक्ष ने जीवन त्याग दिया, लेकिन चूँकि उनकी असीमित संभोग की इच्छा बनी रही, उन्होंने भीषण तप किया और उसके द्वारा परम भगवान को संतुष्ट किया, जिन्होंने उन्हें असीमित संभोग क्षमता का वर दिया.

ध्यान देना चाहिए कि भले ही संभोग के लिए ऐसी सुविधा भगवान के परम व्यक्तित्व की कृपा से अर्जित कर ली जाती है, यह सुविधा उन्नत स्तर के भक्तों को नहीं दी जाती, जो भौतिक इच्छाओं से मुक्त (अन्यभिलाषित शून्यम्) होते हैं. इस संबंध में यह देखा जा सकता है कि यदि कृष्ण चेतना आंदोलन में लगे अमेरिकी लड़के और लड़कियाँ भगवान की प्रेममयी सेवा के परम लाभ को प्राप्त करने के लिए कृष्ण चेतना में उन्नत होना चाहते हैं, तो उन्हें यौन जीवन की इस सुविधा से परहेज करना पड़ेगा. इसलिए हमारा सुझाव है कि व्यक्ति को कम से कम अवैध यौन संबंध से परहेज करना चाहिए. भले ही यौन जीवन के अवसर हों, व्यक्ति को केवल गर्भधान के उद्देश्य से ही मैथुन करने की सीमितता को स्वयं ही स्वीकार करना चाहिए. कर्दम मुनि को भी यौन जीवन की सुविधा दी गई थी, लेकिन उनकी उसमें बहुत कम रुचि थी. इसलिए देवाहुति के गर्भ में संतान पाकर, कर्दम मुनि पूर्णरूप से त्यागी बन गए. उद्देश्य यही है कि यदि कोई घर वापस, परम भगवान के पास लौटना चाहता है, तो उसे स्वेच्छा से यौन जीवन से बचना चाहिए. संभोग को केवल आवश्यकतानुसार स्वीकार किया जाना चाहिए, असीमित रूप से नहीं. व्यक्ति को यह नहीं सोचना चाहिए कि असीमित यौन संबंध के लिए सुविधाओं को प्राप्त करके दक्ष को भगवान का पक्ष प्राप्त हुआ. बाद के श्लोकों से पता चलेगा कि दक्ष ने फिर से एक अपराध किया, इस बार नारद के चरण कमलों में. इसलिए यद्यपि यौन जीवन भौतिक संसार में उच्चतम आनंद होता है और यद्यपि किसी को भगवान की कृपा से यौन आनंद का अवसर मिल सकता है, लेकिन इससे अपराध करने का जोखिम बना रहता है. दक्ष ऐसे अपराधों के लिए उन्मुख थे, और इसलिए, कड़े शब्दों में कहें तो, वे वास्तव में परम भगवान उन पर कृपालु नहीं थे. यौन जीवन में असीमित शक्ति हेतु भगवान की कृपा की इच्छा नहीं होनी चाहिए.”

स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, छठा सर्ग, अध्याय 4 – पाठ 52

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