वे जो निराश और विमूढ़ होते हैं इस भौतिक संसार को अस्वीकार करना चाहते हैं. वे जानते हैं कि उन्हें क्या नहीं चाहते, लेकिन वे यह नहीं जानते कि वे क्या चाहते हैं. लोग हमेशा कहते रहते हैं, “मैं यह नहीं चाहता.” लेकिन वे चाहते क्या हैं? वह उन्हें पता नहीं होता. शब्द अनन्य-विषय का अर्थ अनन्य-भक्ति, अविचल आध्यात्मिक सेवा. हमें बस विचलन-रहित होकर चौबीस घंटे कृष्ण से जुड़ा रहना चाहिए. इस प्रकार हमारा त्याग परिपूर्ण हो सकता है. अगर हमें लगता है कि हम एक ही समय में कृष्ण और भौतिक वस्तुओं से जुड़े हो सकते हैं, तो हम गलत हैं. हम एक ही समय में अग्नि को प्रज्ज्वलित और उस पर पानी नहीं उड़ेल सकते. यदि हम ऐसा करते हैं, तो अग्नि सक्रिय नहीं होगी. मायावादी सन्यासी इस संसार का त्याग करते हैं (ब्रम्ह सत्यं जगन्मिथ्या). जगत के त्याग का उपदेश देना बहुत अच्छा है, लेकन साथ ही हमें किसी वस्तु का आकर्षण भी होना चाहिए, अन्यथा हमारा त्याग ही न बचेगा. हम कई मायावादी सन्यासियों को देखते हैं जो कहते हैं ब्रम्ह सत्यम् जगन्मिथ्या, लेकिन सन्यास लेने के बाद वे अस्पताल खोलने और पारमार्थिक कार्य करने के लिए भौतिक संसार में लौट आते हैं. क्यों? यदि उन्होंने मिथ्या मानते हुए, इस संसार का त्याग कर दिया है, तो वे राजनीति, परमार्थ, और सामाजशास्त्र अपनाने के लिए वापस क्यों आते हैं? वास्तव में ऐसा होता ही है, क्योंकि हम जीव मात्र हैं और सक्रिय हैं. यदि निराश होकर हम क्रियाहीन बनने का प्रयास करते हैं, तो हम अपने प्रयास में गिर पड़ेंगे. हमें कर्मों में लगना ही होगा. सर्वोत्तम कर्म, ब्राम्हण (आध्यात्मिक) कर्म, आध्यात्मिक सेवा है. दुर्भाग्य से मायावादी यह नहीं जानते. उन्हें लगता है कि आध्यात्मिक संसार शून्य है. यद्यपि, आध्यात्मिक संसार ठीक भौतिक संसार जैसा है जिसमें वैविध्य है. आध्यात्मिक संसार में घर, वृक्ष, सड़कें, रथ – सब कुछ है, लेकिन भौतिक मादकता के बिना.

स्रोत: अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “रानी कुंती की शिक्षाएँ”, पृ. 203 व 204

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