एक बहुत विकसित भक्त स्वयं को विकसित नहीं मानता. वह हमेशा बहुत विनम्र होता है. अपने पूर्ण विस्तार में भगवान का परम व्यक्तित्व परमात्मा के रूप में, सभी के हृदय में विराजमान होता है और अपने भक्तों के व्यवहार और कामनाओें को समझ सकता है. भगवान अभक्तों को भी अपनी कामनाओं की पूर्ति करने का अवसर देते हैं, जैसा कि भगवद-गीती में पुष्टि की गई है (मत्तः स्मृतिर् ज्ञानम् अपोहनम् च). एक जीव जो भी कामन करता है, वह कितना भी महत्वहीन हो, भगवान के द्वारा उस पर ध्यान दिया जाता है, जो उसको उसकी कामना की पूर्ति करने का अवसर देते हैं. यदि अभक्तों की कामनाओं की पूर्ति की जाती है, तो भक्तों की क्यों नहीं? एक विशुद्ध भक्त बिना भौतिक कामना के भगवान की सेवा में रत रहना चाहता है, और यदि वह अपने हृदय के केंद्र में ऐसा चाहता है, जहाँ भगवान विराजमान हैं, और यदि वह किसी परोक्ष प्रयोजन से रहित है, तो भगवान क्यों नहीं समझेंगे? यदि एक गंभीर भक्त भगवान या अर्च-विग्रह, भगवान के रूप की सेवा करता है, तो उसकी सभी गतिविधियाँ सफल सिद्ध होती हैं क्योंकि भगवान उसके हृदय में विद्यमान होते हैं और उसकी गंभीरता को समझते हैं. इसलिए यदि एक भक्त, संपूर्ण आत्मविश्वास के साथ, भक्ति सेवा के अनुशंसित कर्तव्यों को पूरा करने जाता है, तो उसे अंततः सफलता मिलेगी.

स्रोत: अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, चतुर्थ सर्ग, अध्याय 30- पाठ 29

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