भगवद्-गीता में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि वैदिक साहित्य में कई प्रकार के यज्ञ निष्पादन का सुझाव दिया गया है, किंतु वास्तव में वे सभी परम भगवान को प्रसन्न करने के लिए किए जाते हैं. यज्ञ का अर्थ है विष्णु. भगवद्-गीता के तीसरे अध्याय में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि व्यक्ति को केवल यज्ञ, या विष्णु को संतुष्ट करने के लिए कार्य़ करना चाहिए. मानव सभ्यता का आदर्श रूप, जिसे वर्णाश्रम-धर्म के रूप में जाना जाता है, विशेष रूप से विष्णु को संतुष्ट करने के लिए होता है. इसलिए, कृष्ण कहते हैं, “मैं सभी भेंटों का भोक्ता हूँ क्योंकि मैं परम गुरु हूँ.” यद्यपि, कम बुद्धिमान व्यक्ति, इस तथ्य को जाने बिना, अस्थायी लाभ के लिए देवताओं की पूजा करते हैं. इसलिए वे भौतिक अस्तित्व के स्तर पर पतित हो जाते हैं और जीवन के वांछित लक्ष्य को प्राप्त नहीं करते हैं. यद्यपि, यदि किसी की भौतिक कामना पूर्ण करने की इच्छा हो, तो श्रेष्ठ यही है कि वह उसके लिए परम भगवान की प्रार्थना करे (यद्यपि वह विशुद्ध भक्ति नहीं होती), और इस प्रकार वह वांछित फल अर्जित करेगा.

स्रोत: अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), श्रीमद् भागवतम्, सातवाँ सर्ग, अध्याय 3 – पाठ 24

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