मायावादी और नास्तिक भगवान के मंदिर में मूर्ति के रूप में देवताओं को स्वीकार करते हैं, लेकिन भक्त मूर्तियों की पूजा नहीं करते. वे सीधे भगवान के परम व्यक्तित्व की पूजा उनके अर्च अवतार में करते हैं. अर्च का संदर्भ उस रूप से है जिसकी पूजा हम अपनी वर्तमान स्थिति में कर सकते हैं. यद्यपि कृष्ण हमारी दृष्टि के परे हैं, उन्होंने हमारे द्वारा अर्च-विग्रह, देवता के माध्यम से देखा जाना स्वीकार किया है. हमें ऐसा नहीं सोचना चाहिए कि देवता पत्थर से बने हैं. भले ही वह पत्थर हो, हमें सोचना चाहिए कि कृष्ण ने हमारे सम्मुख स्वयं को पत्थर के रूप में दृश्यमान किया है क्योंकि हम पत्थर से परे नहीं देख सकते. यह कृष्ण की दया है. क्योंकि हमारी आँखें और अन्य इंद्रियाँ अपूर्ण हैं, हम कृष्ण को उनके मूल आध्यात्मिक रूप में सभी जगह नहीं देख सकते. क्योंकि हम अपूर्ण हैं, हम आध्यात्मिक और भौतिक चीज़ों में अंतर देखते हैं, लेकिन परम होते हुए, कृष्ण ऐसा कोई अंतर नहीं जानते. वे आध्यात्मिक या भौतिक बन सकते हैं, जैसा भी वे चाहें, और इससे उनको कोई अंतर नहीं पड़ता. सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी होने के नाते, कृष्ण पदार्थ को प्राण और प्राण को पदार्थ में बदल सकते हैं. इसलिए हमें नास्तिकों के समान नहीं सोचना कि हम मूर्तियों की पूजा कर रहे हैं. भले ही वह एक मूर्ति हो वह अब भी कृष्ण ही है. यही कृष्ण का परम स्वभाव है. भले ही हम सोचें कि देवता एक पत्थर है, या धातु या काठ का टुकड़ा, वह तब भी कृष्ण है. इसको समझने के लिए हमारी ओर से भक्ति की आवश्यकता होती है. यदि हम थोड़े विचारमान और दार्शनिक हों, और यदि हम थोड़े भी भक्ति की ओर झुके हों, तो हम यह समझ सकते हैं कि कृष्ण पत्थर में विद्यमान हैं. कई शास्त्रीय आदेश हैं जो भगवान के रूप उकेरने के लिए निर्देश प्रदान करते हैं.ये रूप भौतिक नहीं हैं. यदि भगवान सर्व-व्यापी हैं, तो वे भौतिक तत्वों में भी हैं. इस बारे में कोई भी संदेह नहीं है. लेकिन नास्तिक अन्यथा विचार करते हैं. यद्यपि वे सिखाते हैं कि सभी चीज़ें भगवान हैं, जब वे मंदिर जाते हैं और भगवान का रूप देखते हैं, तो वे नहीं मानते कि वह भगवान है. स्वयं उनकी व्याख्या के अनुसार, सभी चीज़ें भगवान हैं. फिर मूर्ति भगवान क्यों नहीं है?

स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2007 संस्करण, अंग्रेजी), “देवाहुति पुत्र, भगवान कपिल की शिक्षाएँ”, पृ. 163 और 210

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