मिथ्या अहंकार, देवताओं में रूपांतरित हो जाता है, जो भौतिक प्रकरणों के नियंत्रण अधिकारी होते हैं. एक उपकरण के रूप में मिथ्या अहंकार का प्रतिनिधित्व विभिन्न इंद्रियों और इंद्रियबोध अंगों के रूप में किया जाता है, और देवताओं और इंद्रिबोध के संयुक्त होने के परिणाम स्वरूप, भौतिक वस्तुओं का निर्माण होता है. भौतिक संसार में हम बहुत सारी वस्तुओं का उत्पादन कर रहे हैं, और यह सभ्यता का विकास कहलाता है, लेकिन वास्तविकता में सभ्यता का विकास मिथ्या अहंकार का प्रकटीकरण है. मिथ्या अहंकार द्वारा भौतिक वस्तुओं का निर्माण भोग के साधनों के रूप में किया जाता है. व्यक्ति को भौतिक चीज़ों के रूप में कृत्रिम आवश्यकताओं को बढ़ाना बंद करना चाहिए. एक महान आचार्य, नरोत्तम दास ठाकुर ने शोकपूर्वक कहा है कि जब कोई वासुदेव या कृष्ण चेतना की शुद्ध चेतना से विचलित होता है, तो वह भौतिक गतिविधियों में उलझ जाता है. उनके वास्तविक शब्द हैं, ‘सत-संग चढ़ी’कैनु असते विलास/ ते-करने लगिला ये कर्म-बंध-फंसा: “मैंने चेतना की विशुद्ध अवस्था को त्याग दिया क्योंकि मैं अस्थायी भौतिक संसार को भोगना चाहता था; इसलिए मैं क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं के जाल में उलझ गया हूँ.”

स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण – अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, तृतीय सर्ग, अध्याय 26 – पाठ 26

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