मन अच्छाई में अहंकार का उत्पाद है और मन का कार्य लालसा के अनुसार स्वीकृति या अस्वीकृति है. लेकिन यहाँ बुद्धि को लालसा में अहंकार का उत्पाद कहा गया है. यह मन और बुद्धि के बीच का भेद है; मन अच्छाई में अहंकार का उत्पाद है, और बुद्धि लालसा में अहंकार का उत्पाद है. किसी वस्तु को स्वीकार करने और किसी वस्तु को अस्वीकार करने की इच्छा मन का बहुत महत्वपूर्ण घटक है. चूँकि मन अच्छाई की अवस्था का उत्पाद है, यदि यह मन के स्वामी, अनिरुद्ध पर एकाग्र किया जाता है, तब मन को कृष्ण चेतना में बदला जा सकता है. नरोत्तम दास द्वारा कहा गया है कि हम हमेशा लालसा करते हैं. लालसाओं को रोका नहीं जा सकता. लेकिन यदि हम हमारी इच्छाओं को परम भगवान के व्यक्तित्व पर स्थानांतरित कर दें, तो वह जीवन का सर्वोत्तम होगा. जैसे ही इच्छा को भौतिक प्रकृति पर आधिपत्य करने के लिए स्थानांतरित किया जाता है, यह पदार्थ से दूषित हो जाती है. इच्छाओं को शुद्ध करना पड़ता है. शुरुआत में, इस शुद्धिकरण प्रक्रिया को आध्यात्मिक गुरु के आदेश से पूरा किया जाना होता है, क्योंकि आध्यात्मिक गुरु जानते हैं कि शिष्य की इच्छा को कृष्ण चेतना में रूपांतरित किया जा सकता है. जहाँ तक बुद्धि का प्रश्न है, यहाँ स्पष्ट कहा गया है कि वह लालसा में अहंकार का उत्पाद है. अभ्यास द्वारा व्यक्ति अच्छाई की अवस्था के बिंदु तक पहुँच जाता है, और मन को परम भगवान के व्यक्तित्व के प्रति समर्पित या एकाग्र करने पर, व्यक्ति एक महान व्यक्तित्व, या महात्मा बन जाता है. भागवद्-गीता में स्पष्ट कहा गया है, स महात्मा सुदुर्लभः: “ऐसी आत्मा बहुत दुर्लभ होती है.”

इस पद में स्पष्ट है कि दोनों प्रकार की चेतना, ज्ञान प्राप्त करने की चेतना और क्रियाओं की चेतना लालसा की अवस्था में अहंकार के उत्पाद हैं. और क्योंकि क्रिया करने और ज्ञान प्राप्ति की इंद्रियों को ऊर्जा,की आवश्यकता होती है, महत्वपूर्ण ऊर्जा, या जीवन ऊर्जा का निर्माण लालसा की अवस्था में अहंकार द्वारा किया जाता है. इसलिए हम वास्तव में देख सकते हैं, कि जो लोग बहुत लालसामय हैं वे भौतिक प्राप्तियों को बहुत तेज़ी से पा सकते हैं. वैदिक शास्त्रों में सुझाया गया है कि यदि कोई किसी व्यक्ति को भौतिक संग्रहण में प्रोत्साहित करना चाहता है, तो उसे यौन जीवन में भी प्रोत्साहित करना चाहिए. हम स्वाभाविक रूप से पा सकते हैं कि जो लोग यौन जीवन के आदी हैं वे भौतिक रूप से भी आगे हैं क्योंकि यौन जीवन या लालसामय जीवन सभ्यता के भौतिक विकास का संवेग है. जो लोग आध्यात्मिक विकास करना चाहते हैं, उनके लिए लालसा की अवस्था का कोई अस्तित्व नहीं है. केवल अच्छाई की स्थिति प्रमुख है. हम देखते हैं कि जो लोग कृष्ण चेतना में लिप्त हैं वे भौतिक रूप से विपन्न होते हैं, लेकिन जिनकी भी आँख हैं वे देख सकते हैं कि कौन बड़ा है. हालांकि वह भौतिक रूप से विपन्न लगता है, कृष्ण चेतना में रत कोई व्यक्ति वास्तव में विपन्न नहीं होता है, बल्कि वह व्यक्ति जिसे कृष्ण चेतना का बोध नहीं है और भौतिक वस्तुओं के साथ बहुत प्रसन्न नज़र आता है वास्तव में वही विपन्न है. भौतिक चेतना की ओर आकर्षित व्यक्ति भौतिक सुविधा के लिए वस्तुएँ ढूंढने में बहुत चतुर होते हैं, लेकिन इसीलिए उनकी पहुँच आत्मा और आध्यात्मिक जीवन की समझ तक नहीं होती. इसलिए, यदि कोई आध्यात्मिक जीवन में प्रगति करना चाहता है, तो उसे शुद्धीकृत कामना, आध्यात्मिक सेवा के लिए शुद्धीकृत कामना के स्तर पर वापस आना होगा. जैसाकि नारद-पंचरात्र में कहा गया है, कि जब इंद्रियाँ कृष्ण चेतना में शुद्ध हो जाती हैं तब भगवान की सेवा में संलग्नता को विशुद्ध समर्पण कहा जाता है.

स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण – अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, तृतीय सर्ग, अध्याय 26 – पाठ 31

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