ऐसा कहा जाता है कि जब तक एक स्त्री गर्भवती नहीं होती, वह शिशु को जन्म देने के कष्ट को नहीं समझ सकती. बंध्या की बूझिबे प्रसव-वेदना. बंध्या शब्द का अर्थ होता है बांझ स्त्री. ऐसी स्त्री एक शिशु को जन्म नहीं दे सकती.फिर वह प्रसव का कष्ट कैसे समझ सकती है? प्रजापति दक्ष के दर्शन के अनुसार, किसी स्त्री को पहले गर्भवती होना चाहिए और फिर शिशु जन्म की पीड़ा का अनुभव करना चाहिए. उसके बाद, यदि वह बुद्धिमान है, तो वह दोबारा गर्भवती होना नहीं चाहेगी. यद्यपि, ऐसा सच नहीं है. मैथुन का आनंद इतना शक्तिशाली होता है कि स्त्री गर्भवती होती है और शिशुजन्म के समय कष्ट भोगती है किंतु वह अपने अनुभव के पश्चात भी फिर से गर्भ धारण करती है. दक्ष के दर्शन के अनुसार व्यक्ति को भौतिक भोग में लिप्त होना चाहिए ताकि ऐसे भोग के कष्ट का अनुभव करने के बाद, वह स्वतः ही त्यागी हो जाएगा. भौतिक प्रकृति, यद्यपि, इतनी शक्तिशाली होती है कि प्रत्येक चरण पर कष्ट भोगने पर भी व्यक्ति, भोग के अपने प्रयास नहीं छोड़ता (तृप्यंति नेह कृपण-बहु-दुख-भजः). परिस्थितियों के अधीन, जब तक व्यक्ति को नारद मुनि या शिष्य परंपरा में उनके सेवक जैसे किसी भक्त की संगति न मिले, त्याग की उसकी सुप्त भावना को जाग्रत नहीं किया जा सकता है. ऐसा सच नहीं है क्योंकि भौतिक भोग में बहुत सी कष्टमय परिस्थितियाँ होती हैं कि व्यक्ति स्वतः ही निर्लिप्त बन जाता है. फिर व्यक्ति भौतिक संसार के लिए अपनी आसक्ति को तज देता है. कृष्ण चेतना आंदोलन के युवक और युवतियों ने भौतिक भोग की भावना को अभ्यास से नहीं त्यागा है बल्कि भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु और उनके सेवकों की दया से त्यागा है.

स्रोत: अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम”, छठा सर्ग, अध्याय 5- पाठ 41

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