“जब भौतिक ब्रम्हांड की रचना करना आवश्यक हो, तब भगवान विष्णु (कृष्ण) के परम व्यक्तित्व के पहले विस्तार बलराम (संकर्षण) स्वयं को महा-विष्णु (पुरुष-अवतार) के रूप में विस्तृत करते हैं. भगवान बलराम वृंदावन की लीलाओं में कृष्ण के भाई हैं. ये महा-विष्णु कारण वाचक समुद्र में लेटते हैं और उनकी नासिका से संपूर्ण ब्रम्हांड को श्वास के रूप में ग्रहण करते हैं. ये असंख्य ब्रम्हांड महा-विष्णु के शरीर के रोम छिद्रों से निर्मित होते हैं. जैसे किसी पर्दे के महीन छिद्रों से धूल के सूक्ष्म कण आर-पार हो जाते हैं, उसी प्रकार महा-विष्णु के शरीर के रोम छिद्रों से असंख्य ब्रम्हांड उत्पन्न होते हैं. उनके उच्छ्वास करने पर असंख्य ब्रम्हांड उत्पन्न होते हैं, और जब वे श्वास भीतर लेते हैं, वे समाप्त हो जाते हैं.
जिस प्रकार पति और पत्नी संतान प्राप्त करने के लिए मिलन करते हैं, महा-विष्णु अपनी पत्नी माया, या भौतिक प्रकृति के साथ मिलन करते हैं. विष्णु बस अपनी दृष्टि से ही माया या भौतिक प्रकृति को गर्भवती कर देते हैं. यह आध्यात्मिक विधि है. भौतिक रूप से हम अपने शरीर के केवल एक विशेष भाग से गर्भाधान करने तक सीमित हैं, लेकिन परम भगवान, कृष्ण या महा-विष्णु किसी भी भाग से किसी भी भाग को गर्भवान कर सकते हैं. भगवान केवल दृष्टि मात्र से भौतिक प्रकृति की कोख में असंख्य जीवों को उत्पन्न कर सकते हैं. फिर ये रची गई चेतनाएँ/ जीव तीन गुणों, या भौतिक प्रकृति के रूपों, साधुता, कामोन्माद और अज्ञानता के अनुसार तीन विभागीय गतिविधियों में विभाजित कर दिए जाते हैं. समस्त लौकिक आविर्भाव इन्हीं तीन गुणों का संगम है.कृष्ण के गुण-अवतार ब्रम्हा, विष्णु और शिव भौतिक प्रकृति के तीन रूपों के प्रधान देवता हैं. ब्रम्हा (कामोन्माद), विष्णु (साधुता), और शिव (अज्ञानता) के.

विष्णु के दूसरे पुरुष-अवतार गर्भोदकशायी विष्णु हैं (महा-विष्णु अपने व्यक्तित्व को विस्तृत करते हैं और गर्भोदकशायी विष्णु के रूप में प्रत्येक ब्रम्हांड में प्रवेश करते हैं, अपने शरीर से जल प्रसारित करते हैं, और जल पर विश्राम करते हैं. उनकी नाभि से एक कमल नलिका प्रस्फुटित होती है, और उस कमल पु्ष्प पर पहले प्राणी ब्रम्हा का जन्म होता है. उस कमल पुष्प की नलिका के भीतर ग्रह मंडलों के चौदह भाग होते हैं, जिनका निर्माण ब्रम्हा द्वारा किया जाता है. भगवान प्रत्येक ब्रम्हांड में गर्भोदकशायी विष्णु के रूप में उपस्थित रहते हैं, और वे प्रत्येक ब्रम्हांड का पालन-पोषण और आवश्यकता की पूर्ति करते हैं. हालांकि वे प्रत्येक ब्रम्हांड में उपस्थित होते हैं, किंतु भौतिक ऊर्जा का प्रभाव उन्हें छू नहीं सकता.

विष्णु के तीसरे पुरुष-अवतार क्षीरोदकशायी विष्णु हैं (गर्भोदकशायी विष्णु, क्षीरोदकशायी विष्णु का रूप ले लेते हैं), जो तब विशिष्ट ब्रम्हांडों में उपस्थित सभी जीवों के हृदय में प्रवेश करने हेतु स्वयं का असीमित विस्तार करते हैं. विष्णु का यह विस्तार परमात्मा कहलाता है, जो भौतिक सुख की खोज में रत प्रत्येक जीव आत्मा के साथ होते हैं.
क्षीरोदकशायी विष्णु भी साधुता के गुण के एक अवतार हैं, और वे ब्रम्हांड में दुग्ध के सागर में निवास करते हैं.

लौकिक जगत के आविर्भाव की वैज्ञानिक सांसारिक दृष्टि वेदांत की दृष्टि से भिन्न है. हालांकि, समय और अवकाश की धारणा विज्ञान और वेदांत दोनों में बहुत महत्वपूर्ण है. भौतिक सांसारिक दृष्टि में, समय का एक आरंभ है और ब्रम्हांड विज्ञानी कहते हैं कि समय का आरंभ तथाकथित महा-विस्फोट सिद्धांत के साथ हुआ. यह आधुनिक ब्रह्मांड विज्ञानियों के मत के अनुसार हमारे ब्रह्मांड की शुरुआत से संबंधित वैचारिक ढांचा है. इस सिद्धांत के अनुसार, हमारा ब्रह्मांड तेरह से पंद्रह अरब (13-15 * 109) वर्ष पहले आरंभ हुआ था. वेदांत के अनुसार, काल या समय का कोई आरंभ नहीं होता. वह परमात्मा का शाश्वत और अवैयक्तिक पक्ष है. भगवद्गीता (11.32) में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं, कालो’स्मि, “मैं समय हूँ”. इस प्रकार, आध्यात्मिक सांसारिक दृष्टि में समय का कोई आरंभ और कोई अंत नहीं है, और वह शाश्वत रूप से उपस्थित है. वेदांत के अनुसार सभी भौतिक ब्रम्हांडों की उत्पत्ति महा दृष्टि से हुई है महा विस्फोट से नहीं. इन सभी उत्पत्तियों का एक आरंभ और साथ ही अंत भी होता है. ये लक्षण भौतिक प्रकृति के हैं. उसी तरह जैसे हमारे सभी भौतिक शरीरों के एक आरंभ और अंत भी होता है. रचना और समाप्ति का चक्र ऋतुओं के परिवर्तन के समान चलता रहता है. वेदांतिक ब्रम्हांड विज्ञान में वर्णन किया जाता है कि ब्रम्हांड की रचना के प्रत्येक चक्र के आरंभ में, भगवान ब्रम्हा का जन्म होता है, जो उत्पन्न किए गए पहले ब्रम्हांडीय जीव हैं. ब्रम्हा का एक दिन एक कल्प कहलाता है और एक कल्प में चार युगों, या सत्य, त्रेता, द्वापर, और कलि कहलाने वाले कालों के सहस्त्र चक्र शामिल होते हैं. इतनी ही संख्या ब्रम्हा की एक रात्रि में होती है और वे ऐसे सौ वर्षों तक जीवन जीते हैं और फिर उनकी मृत्यु हो जाती है.सतयुग 1,728,000 वर्षों का होता है; त्रेतायुग 1,296,000 वर्षों का; द्वापरयुग 864,000 वर्षों का और कलियुग 432,000 वर्षों का होता है. इस प्रकार भगवान ब्रम्हा के सौ वर्ष पृथ्वी के 311 खरब और 40 अरब वर्षों के बराबर होते हैं. वेदांतिक ब्रम्हांड विज्ञान के अनुसार हमारा ब्रम्हांड भगवान ब्रम्हा के जन्म के साथ आरंभ होता है और अभी वे 50 से कुछ अधिक वर्ष के हैं. वर्तमान अवधि ब्रम्हा के जीवन के दूसरे आधे भाग में उनके पहले दिन के पहले कल्प के सातवें मनु के अट्ठाईसवें चार-युगीय चक्र के कलियुग में 5,000 वर्ष है. इसलिए हमारा वर्तमान ब्रम्हांड लगभग 155.522 खरब (155.522 * 1012) वर्षों पहले आरंभ हुआ था और 155.518 खरब (155.518 * 1012) वर्षों में समाप्त हो जाएगा और उसके तुरंत बाद रचना को नया चक्र का आरंभ दोबारा हो जाएगा.

सहस्त्राब्दि के अंत में, ब्रम्हा सभी रचनात्मक तत्वों के साथ परमात्मा भगवान नारायण (महा-विष्णु) के व्यक्तित्व में प्रवेश करना प्रारंभ कर देते हैं. (भगवद्गीता 1.6.29). जीवों का महा-विष्णु के शरीर में विलय ब्रम्हा के एक सौ वर्षों की समाप्ति पर स्वतः होता है. परंतु उसका अर्थ यह नहीं है कि जीव अपनी व्यक्तिगत पहचान खो देता है. पहचान बनी रहती है, और जैसे ही परम भगवान की इच्छा से दोबारा रचना होती है, तब सभी प्रसुप्त, निष्क्रिय जीव उनके जीवन के पिछले भिन्न भाग की गतिविधियाँ प्रारंभ करने के लिए फिर से स्वतंत्र कर दिए जाते हैं. (भगवद्गीता 1.10.21, अभिप्राय).”

स्रोत:”अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2012 संस्करण, अंग्रेजी), “भगवान चैतन्य की शिक्षाएँ, स्वर्ण अवतार”, पृष्ठ 16, 22, 96 और 97

उर्मिला देवी दासी, http://btg.Krishna.com/creation-and-dissolution-material-world”

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