“आनंद प्राप्ति के स्वर्गीय स्थानों को तीन समूहों में बाँटा गया है: आकाशीय स्वर्गीय ग्रह, भूमंडल (पृथ्वी की सतह) के स्वर्गीय स्थान, और बिल स्वर्गीय स्थान, जो निम्नतर क्षेत्रों में पाये जाते हैं. स्वर्गीय स्थानों (भौम – स्वर्ग-पद-नि) के इन तीन वर्गों में, पृथ्वी की सतह पर भारत वर्ष (पृथ्वी ग्रह) के अतिरिक्त आठ वर्ष होते हैं. भगवद-गीता (9.21) में कृष्ण कहते हैं, क्षीणे पुण्ये मर्त्य लोक विसन्ति: जब स्वर्ग में रहने वाले व्यक्ति की पवित्र गतिविधियों के परिणाम समाप्त हो जाते हैं, तो वे इस धरती पर लौट आते हैं. इस प्रकार वे स्वर्गीय ग्रहों तक उन्नत हो जाते हैं, और फिर वे दोबारा पृथ्वी के ग्रहों पर पतित होते हैं. इस प्रक्रिया को ब्रम्हांड भ्रमण के रूप में जाना जाता है, ब्रम्हांड भर में विचरण करते हुए भटकना. जो बुद्धिमान होते हैं – दूसरे शब्दों में, जो लोग अपनी बुद्धि नहीं खोते हैं – वे स्वयं को आवागमन की इस प्रक्रिया में शामिल नहीं करते हैं. वे भगवान की भक्ति सेवा में लग जाते हैं ताकि अंततः वे इस ब्रह्मांड के आवरण को भेद सकें और आध्यात्मिक राज्य में प्रवेश कर सकें. फिर वे वैकुंठलोक के रूप में ज्ञात किसी एक ग्रह में, या उससे भी उच्च स्थान कृष्णलोक (गोलोक वृंदावन) में स्थापित हो जाते हैं.

इन आठ वर्षों या भूभागों में, पृथ्वी लोक की गणना के अनुसार मानव दस सहस्त्र वर्षों तक जीवित रहते हैं. सभी निवासी लगभग देवताओं जैसे होते हैं. उनका शारीरिक बल दस हजार हाथियों का होता है. निस्संदेह, उनके शरीर वज्र के समान शक्तिशाली होते हैं. उनके जीवन की युवा अवधि बहुत ही मनभावन होती है, और पुरुष और महिला दोनों लंबे समय तक यौन सुख का आनंद लेते हैं. वर्षों तक इंद्रिय सुख के बाद–जब जीवन का शेष एक वर्ष बचा होता है–पत्नी गर्भ धारण करती है. इस प्रकार इन स्वर्गीय क्षेत्र के निवासियों के लिए सुख का मानक ठीक उन मानवों जैसा होता है जो त्रेता-युग की अवधि में रहते थे. चार युग होते हैं: सत्य-युग, त्रेता-युग, द्वापर-युग और कलि युग. पहले युग के दौरान, लोग बड़े पवित्र थे, प्रत्येक व्यक्ति आध्यात्मिक बोध और भगवान की प्रतीति के लिए गूढ़ योग प्रणाली का अभ्यास करता था. चूँकि हर कोई हमेशा समाधि में लीन रहता था, कोई भी व्यक्ति भौतिक इंद्रिय भोग में रुचि नहीं रखता था. त्रेता युग में, लोग क्लेश रहित इंद्रिय सुख का भोग करते थे. भौतिक कष्ट द्वापर युग में प्रारंभ हुए, लेकिन वे उतने कठोर नहीं थे. कठोर भौतिक दुखों की वास्तविक शुरुआत कलियुग के आगमन से हुई. इस श्लोक में एक और बिंदु है कि सभी आठों स्वर्गीय वर्षों में, यद्यपि पुरुष और महिलाएँ यौन सुख का आनंद लेते हैं, लेकिन गर्भावस्था नहीं होती. गर्भावस्था केवल निम्न-श्रेणी के जीवन में होती है। उदाहरण के लिए, कुत्ते और शूकर जैसे पशु एक वर्ष में दो बार गर्भवती हो जाते हैं, और हर बार वे कम से कम आधा दर्जन संतानों को जन्म देते हैं. यहाँ तक कि जीवन की निम्न प्रजातियाँ जैसे सर्प एक बार में सैकड़ों सँपोलों को जन्म देते हैं. यह श्लोक हमें बताता है कि हमसे उच्चतर जीवन स्तरों में, गर्भावस्था पूरे जीवनकाल में एक बार होती है. लोगों के पास अभी भी यौन जीवन है, लेकिन गर्भावस्था नहीं है. उन ग्रहों के निवासी कमल के फूलों से भरे हुए सरोवरों, फूलों, फलों, विभिन्न प्रकार के पक्षियों और गुनगुनाती मधुमक्खियों से भरे बगीचों के मनभावन वातावरण में जीवन का आनंद लेते हैं. उस वातावरण में वे अपनी अत्यंत सुंदर पत्नियों के साथ जीवन का आनंद लेते हैं, जो हमेशा कामातुर रहती हैं. तब भी वे सभी भगवान के परम व्यक्तित्व के भक्त हैं. इस पृथ्वी के निवासी भी ऐसे स्वर्गीय सुख की कामना करते हैं, लेकिन जब उन्हें किसी तरह कृत्रिम सुख जैसे काम सुख और नशा अर्जित हो जाता है, वे परम भगवान की सेवा को पूरी तरह से भूल जाते हैं. स्वर्गीय ग्रहों में, हालाँकि, निवासी उच्चतर इंद्रिय सुख का भोग करते हैं, वे कभी भी परम जीव के सेवक रूपी अपनी शाश्वत स्थिति को नहीं भूलते.

आध्यात्मिक संसार में, लोग अपने अति भक्तिपूर्ण व्यवहार के कारण, यौन जीवन के प्रति बहुत आकर्षित नहीं होते हैं. व्यावहारिक रूप से कहें तो, आध्यात्मिक दुनिया में यौन जीवन नहीं है, लेकिन कभी-कभी ऐसा होता है, तो भी गर्भावस्था नहीं होती है. पृथ्वी ग्रह पर, यद्यपि, मानव गर्भवान होते हैं, जबकि उनकी प्रवत्ति संतान होने से बचने की होती है. कलि के इस पापमय युग में, लोग गर्भ में शिशु को मारने की प्रक्रिया में लग गए. यह अभ्यास सर्वाधिक तुच्छ है; इससे उन लोगों की दयनीय भौतिक स्थिति अविरत ही बनी रह सकती है जो ऐसा करते हैं.

स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, पाँचवा सर्ग, अध्याय 17 – पाठ 11, 12 और 13

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