“कई स्थानों पर, शास्त्र भगवान के परम व्यक्तित्व का वर्णन ऐसे करते हैं कि वे अपने भक्त के प्रति उनकी पत्नी से अधिक अवलंबित होते हैं, जो सदैव उनके वक्ष पर होती है. श्रीमद-भागवतम (11.14.15) में कहा गया है:

न तथा मे प्रियात्मा आत्मा-योनिर् न शंकरः
न च संकर्षणो न श्रीर नैवात्म च यथा भवन

यहाँ कृष्ण स्पष्ट कहते हैं कि उनके भक्त उन्हें भगवान ब्रम्ह, भगवान शिव, भगवान संकर्षण (जगत रचना के मूल कारण), भाग्य की देवी या स्वंय से भी अधिक प्रिय होते हैं. श्रीमद-भागवतम (10.9.20) में एक और स्थान पर शुकदेव गोस्वामी कहते हैं,

नेमम विरिंचो न भावो न शरीर अपि अंग संश्रय
प्रसादम लेभिरे गोपी यत् तत प्रप विमुक्तिदत

परम भगवान, जो किसी को भी मुक्ति दे सकते हैं, उन्होंने भगवान ब्रम्हा, भगवान शिव यहाँ तक कि भाग्य की देवी, जो स्वयं उनकी पत्नी हैं और जिनका संबंध उनके शरीर से है की अपेक्षा गोपियों के प्रति अधिक कृपा दिखाई. इसी प्रकार श्रीमद-भागवतम् (10.47.60) यह भी कहता है:

नयम् श्रियोंग उ नितांत-रतेः प्रसादः स्वर-योशिताम् नलिन-गंध-रुचम कुतो न्यः
रासोत्सवे स्य भुज-दंड-गृहिता-कंठलब्धशीषम् य उदगद व्रज-सुंदरीनाम्

“गोपियों को भगवान से ऐसे वरदान मिले हैं जो न लक्ष्मीदेवी को ना ही स्वर्गीय ग्रहों की सबसे सुंदर नृत्यांगनाओं को मिल सके हैं. रास नृत्य में, भगवान ने अपनी बाहें सबसे भाग्यशाली गोपियों के कंधों पर रखकर और प्रत्येक के साथ नृत्य करके उनके प्रति अपनी कृपा प्रदर्शित की है. गोपियों की तुलना किसी के भी साथ नहीं की जा सकती, जिन्हें भगवान की अहेतुक कृपा प्राप्त हुई है.” चैतन्य-चरितामृत में कहा गया है कि गोपियों के पदचिन्हों पर चले बिना कोई भी भगवान के परम व्यक्तित्व की वास्तविक कृपा प्राप्त नहीं कर सकता है. यहां तक कि भाग्य की देवी भी गोपियों के समान अनुग्रह प्राप्त नहीं कर सकीं, हालांकि उन्होंने कई वर्षों तक कड़ी तपस्या और तप किए.”

स्रोत: अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), श्रीमद् भागवतम्, पाँचवाँ सर्ग, अध्याय 18 – पाठ 23

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