भगवान शिव एक सामान्य प्राणी नहीं हैं, न ही वे विष्णु या भगवान के परम व्यक्तित्व की श्रेणी में हैं. वे ब्रम्हा के स्तर तक किसी भी जीव से कहीं अधिक शक्तिशाली हैं, फिर भी वे विष्णु के समान स्तर पर नहीं हैं. चूँकि वे भगवान विष्णु के लगभग समान हैं, शिव भूत, वर्तमान और भविष्य देख सकते हैं. उनकी एक आँख सूर्य के समान है, तो दूसरी चंद्रमा के समान, और उनकी तीसरी आँख, जो उनके भ्रूमध्य में है, वह अग्नि के समान है. वे अपने तीसरे नेत्र से अग्नि पैदा कर सकते हैं, और वे ब्रम्हा सहित, किसी भी शक्तिशाली जीव का विनाश कर सकते हैं, तब भी वे वैभवपूर्ण रूप से किसी महल इत्यादि में नहीं रहते, न ही उनके पास कोई भौतिक संपत्ति है, यद्यपि वे भौतिक संसार के स्वामी हैं. वे अधिकतर श्मशान में रहते हैं, जहाँ मृत शरीरों को जलाया जाता है, और श्मशान की उड़ने वाली भस्म उनका अंगवस्त्र है. वे भौतिक प्रदूषण से अछूते हैं. भगवान शिव किसी से भी नहीं जुड़े हैं, ना ही कोई उनका शत्रु है. चूँकि वे ब्रह्मांडीय व्यवस्था के तीन नियंत्रकों में से एक हैं, वे प्रत्येक के समकक्ष हैं. उनकी महानता अतुलनीय है क्योंकि वे भगवान के परम व्यक्तित्व के एक महान उपासक हैं. कहा जाता है कि भगवान के व्यक्तित्व के सभी भक्तों में भगवान शिव महानतम हैं. इसलिए उनके द्वारा छोड़ा गया भोजन अन्य भक्तों द्वारा महा-प्रसाद, या महान आध्यात्मिक भोजन के रूप में स्वीकार किया जाता है. भगवान को अर्पित किया गए भोजन में से बचने वाले भोजन को प्रसाद कहा जाता है, लेकिन जब वही प्रसाद भगवान शिव जैसे किसी महान भक्त द्वारा खाया जाता है, तो उसे महा-प्रसाद कहा जाता है. भगवान शिव इतने महान हैं कि वे भौतिक समृद्धि की चिंता नहीं करते जिसके प्रति हम सब इतने उत्सुक रहते हैं. पार्वती, जो शक्तिशाली भौतिक प्रकृति का प्रतीक रूप हैं, उनके संपूर्ण नियंत्रण में हैं, तब भी वे उनका उपयोग निवास योग्य घर बनाने के लिए भी नहीं करते. वे अनिकेतन ही रहना पसंद करते हैं, और उनकी महान पत्नी भी विनम्रतापूर्वक उनके साथ रहना स्वीकार करती हैं. सामान्यतः लोग देवी दुर्गा, भगवान शिव की पत्नी की पूजा, भौतिक समृद्धि के लिए करते है, लेकिन भगवान शिव उन्हें अपनी सेवा में बिना भौतिक इच्छाओं के रखते हैं. वे बस अपनी महान पत्नी को यही सुझाव देते हैं कि सभी प्रकार की पूजाओँ में विष्णु की पूजा ही उच्चतम है, और उससे भी उच्चतर एक महान भक्त या विष्णु से संबंधित किसी भी वस्तु की पूजा है. भगवान शिव के असभ्य, दानवी लक्षण कभी भी घिनौने नहीं होते क्योंकि वे भगवान के भक्तों को सिखाते हैं कि भौतिक भोग से अलग रहने का अभ्यास कैसे किया जाता है. उन्हें महादेव, या देवताओं में महानतम का जाता है, और भौतिक संसार में कोई भी उनके समकक्ष या उच्चतर नहीं है. वे भगवान विष्णु के लगभग समकक्ष हैं. यद्यपि उनका संबंध माया, दुर्गा से भी है, वे भौतिक प्रकृति के तीन अवस्थाओं के प्रतिक्रियात्मक स्तर से ऊपर हैं, और यद्यपि वे अज्ञान की अवस्था में दानवी गुणों के अधीन होते हैं, वे ऐसे संबंध से अप्रभावित रहते हैं. भगवान शिव कभी भी विलासितापूर्ण परिधान, माला, गहने या लेप स्वीकार नहीं करते. लेकिन जो लोग शरीर की सजावट के अभ्यस्त हैं, जिसे अंततः कुत्तों द्वारा खा लिया जाता है, बहुत विलासिता से उसे आत्म की तरह बनाए रखते हैं. ऐसे लोग भगवान शिव को नहीं समझते हैं, लेकिन वे उनके पास विलासितापूर्ण भौतिक सुविधाओं के लिए जाते हैं. भगवान शिव के दो प्रकार के भक्त होते हैं. एक वर्ग स्थूल भौतिकवादियों का है जो भगवान शिव से केवल शारीरिक सुविधाएँ चाहता है, और दूसरा वर्ग उनके साथ एक होना चाहता है. वे अधिकतर अवैयक्तिकतावादी होते हैं और शिवो’हम् “मैं शिव हूँ” या “मुक्ति के बाद मैं शिव के साथ एक हो जाउंगा” का जाप करना पसंद करते हैं. दूसरे शब्दों में, कर्मी और ज्ञानी सामान्यतः भगवान शिव के उपासक होते हैं, लेकिन वे जीवन में उनका प्रयोजन ठीक से नहीं जानते. कभी-कभी भगवान शिव के तथाकथित भक्त जहरीले मादक पदार्थों का उपयोग करके उनकी नकल करते हैं. भगवान शिव ने एक बार विष से भरा महासागर पी लिया था, और इस प्रकार उनका गला नीला पड़ गया था. नकलची शिव विष पान करके उनका अनुकरण करने का प्रयास करते हैं, और फिर बर्बाद हो जाते हैं. भगवान शिव का मूल प्रयोजन परमात्मा, भगवान कृष्ण की सेवा करना है. उनकी यही अभिलाषा होती है कि बढ़िया परिधान, मालाएँ, आभूषण और प्रसाधन केवल भगवान कृष्ण को अर्पित किए जाएँ, क्योंकि कृष्ण ही वास्तविक भोगकर्ता हैं. वे ऐसी विलासी वस्तुओं को स्वीकार करने से स्वयं मना कर देते हैं क्योंकि वे केवल कृष्ण के लिए हैं. यद्यपि, चूँकि वे भगवान शिव के इस उद्देश्य को नहीं जानते, मूर्ख लोग या तो उन पर हंसते हैं या उनकी लाभहीन नकल करने का प्रयास करते हैं.

स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी) “श्रीमद् भागवतम्”, तृतीय सर्ग, अध्याय 14- पाठ 25 व 29

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