भगवान विष्णु को त्रि-युग कहा जाता है. वे तीन युगों–सत्य, त्रेता और द्वापर– में प्रकट होते हैं, लेकिन कलि युग में वे प्रकट नहीं होते. यद्यपि पह्लाद महाराज की प्रार्थना से हम समझते हैं कि कलियुग में वे एक भक्त के रूप में प्रकट होते हैं. भगवान चैतन्य वह भक्त हैं. कृष्ण एक भक्त के रूप में प्रकट हुए हैं, लेकिन यद्यपि उन्होंने कभी भी स्वयं को उजागर नहीं किया, रूप गोस्वामी उनकी पहचान को समझ सकते थे, क्योंकि भगवान किसी विशुद्ध भक्त से छिप नहीं सकते. भगवान चैतन्य ने उन्हें पहचान लिया था जब उन्होंने पहली बार भगवान चैतन्य का सत्कार किया था. वे जानते थे कि भगवान चैतन्य स्वयं कृष्ण थे और इसलिए उन्होंने इन शब्दों के साथ उनका सम्मान किया: “मैं कृष्ण के प्रति अपना सम्मान ज्ञापित करता हूँ, जो अब भगवान चैतन्य के रूप में प्रकट हुए हैं.” इसकी पुष्टि प्रह्लाद महाराज की प्रार्थना में भी की गई है: कलि-युग में वे प्रत्यक्ष प्रकट नहीं होते, लेकिन वे एक भक्त के रूप में प्रकट होते हैं. इसलिए, विष्णु को त्रियुग के रूप में जाना जाता है. त्रियुग की एक और व्याख्या यह है कि उनके पास दिव्य गुणों के तीन जोड़े हैं, शक्ति और समृद्धि, पवित्रता और यश, और बुद्धि और उदासीनता. श्रीधर स्वामी के अनुसार, उनके ऐश्वर्यों के तीन जोड़े संपूर्ण संपन्नता औऱ संपूर्ण शक्ति, संपूर्ण प्रसिद्धि और संपूर्ण सौंदर्य, और संपूर्ण बुद्धि और संपूर्ण त्याग हैं. त्रि-युग के विभिन्न व्याख्याएँ हैं, लेकिन त्रि-युग का अर्थ विष्णु है यह सभी विद्वान स्वीकार करते हैं.

स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी) “श्रीमद् भागवतम्”, तृतीय सर्ग, अध्याय 24- पाठ 26

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