राधा और कृष्ण एक हैं, और जब कृष्ण भोग विलास करना चाहते हैं, वे स्वयं को राधारानी के रूप में प्रकट करते हैं. राधा और कृष्ण के बीच आध्यात्मिक प्रेम का आदान-प्रदान ही कृष्ण की आंतरिक शक्ति का वास्तविक प्रदर्शन है. यद्यपि हम कहते हैं कि “जब” कृष्ण कामना करते हैं, यह कि उन्होंने कब कामना की, यह हम नहीं कह सकते. हम इस प्रकार सोचते हैं क्योंकि बद्ध जीवन में हम मानते हैं कि सभी चीज़ों का एक प्रारंभ होता है; यद्यपि, आध्यात्मिक जीवन में न तो प्रारंभ होता है नही अंत. फिर भी यह समझने के लिए कि राधा और कृष्ण एक हैं और वे अलग भी हो जाते हैं, यह प्रश्न “कब” मन में आता है. जब कृष्ण ने अपनी भोग शक्ति का आनंद लेने की इच्छा की, तो उन्होंने राधारानी के रूप में भिन्न रूप में स्वयं को प्रकट किया, और जब उन्होंने राधारानी की संगति में स्वयं को समझना चाहा, वे राधारानी के साथ एक हो गए, और उसी ऐक्य को भगवान चैतन्य कहते हैं. कृष्ण ने चैतन्य महाप्रभु का रूप क्यों धारण किया? यह समझाया जाता है कि कृष्ण राधा के प्रेम की महिमा जानना चाहते थे. । “वह मुझसे इतना प्रेम क्यों करती है?” कृष्ण ने पूछा. “मेरी कौनसी विशिष्ट योग्यता है जो उन्हें आकर्षित करती है? और वास्तव में मुझे किस प्रकार से प्रेम करती हैं?” यह अजीब लगता है कि सर्वोत्तम के रूप में कृष्ण, को किसी के भी प्रेम से आकृष्ट होना चाहिए. हम किसी स्त्री या पुरुष का प्रेम खोजते हैं क्योंकि हम अपूर्ण हैं और हममें कुछ कमी है. किसी स्त्री का प्रेम, वह शक्ति और आनंद, पुरुष में अनुपस्थित होता है. लेकिन कृष्ण के साथ ऐसा नहीं है, जो स्वयं में ही पूर्ण हैं. इसलिए कृष्ण ने आश्चर्य व्यक्त किया है: “मैं राधारानी से आकर्षित क्यों हूं? और जब राधारानी को मेरे प्रेम का अनुभव होता है, तो वह वास्तव में क्या महसूस कर रही हैं?” उस प्रेम संबंध के सत्व का स्वाद लेने के लिए, कृष्ण उसी तरह प्रकट हुए जैसे समुद्र के क्षितिज पर चंद्रमा दिखाई देता है. जिस प्रकार समुद्र के मंथन से चंद्रमा उत्पन्न हुआ था, उसी प्रकार आध्यात्मिक प्रेम के मंथन से चैतन्य महाप्रभु का चंद्रमा प्रकट हुआ था. वास्तव में, चैतन्य का रंग चंद्रमा की तरह ही सुनहरा था.

स्रोत : अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2012 संस्करण, अंग्रेजी) “भगवान चैतन्य, स्वर्ण अवतार की शिक्षाएँ”, पृ. 14 और 15

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