परम सत्य एक है, लेकिन उसे तीन प्रकार से अनुभव किया जाता है, जो ब्राम्हण, परमात्मा, और भगवान के रूप में ज्ञात हैं. परम सत्य का मूल, संपूर्ण गुण भगवान, परम भगवान का व्यक्तित्व है, और उसका परिपूर्ण प्रतिनिधित्व परमात्मा, क्षीरोदकशायी विष्णु हैं, जो सबके हृदय में विद्यमान हैं (ईश्वरः सर्व-भूतानाम हृद्देशे अर्जुन तिष्ठति). परम सत्य का तीसरा गुण ब्राम्हण है, परम की सर्वव्यापी अवैयक्तिक प्रभा. परम सत्य सभी के लिए समान है, लेकिन व्यक्ति को परम का अनुभव उसी अनुसार होगा जैसे वे उस तक पहुँचता है (ये यथा मम प्रपद्यन्ते). व्यक्ति की समझ की क्षमता के अनुसार, परम सत्य या तो अवैयक्तिक ब्राम्हण के रूप में, परमात्मा के रूप में, या अंततः भगवान के रूप में प्रकट होता है. अवैयक्तिक ब्राम्हण को समझ कर, व्यक्ति बस कृष्ण के शरीर से निकलती आलौकिक दीप्ति को अनुभव करता है. इस दीप्ति की तुलना सूर्य के प्रकाश से की जाती है. जैसे सूर्य भगवान हैं, स्वयं सूर्य और सूर्य-प्रकाश जो मूल सूर्य भगवान की प्रभावान दीप्ति है, आध्यात्मि दीप्ति (ब्रह्मज्योति), अवैयक्तिक ब्राम्हण, और कुछ नहीं बल्कि कृष्ण की वैयक्तिक दीप्ति है. परमात्मा, सबके शरीर में स्थित सर्व-व्यापी गुण, कृष्ण का आंशिक प्रकटन या विस्तार है, लेकिन चूंकि कृष्ण आत्माओं के आत्मा हैं, उन्हें परमात्मा, सर्वोच्च आत्मा कहा जाता है. भक्ति के तटस्थ चरण में व्यक्ति हृदय के भीतर प्रभु की दीप्ति और परमात्मा को अधिक महत्व दे सकता है, लेकिन कृष्ण चेतना वास्तव में तब विकसित होती है जब व्यक्ति यह विचार करता है, “कृष्ण मेरे अंतरंग संबंधों के अत्यंत अंतरंग स्वामी हैं”. शुरुआत में, अवश्य ही, अवैयक्तिक अनुभव और परमात्मा का अनुभव कृष्ण चेतना के ही अंश हैं. भगवान के अवैयक्तिक पक्ष या परमात्मा के रूप में उनके पक्ष के रूप में भगवान का आंशिक अनुभव व्यक्ति को भगवान के लिए श्रद्धा को विकसित करता है, लेकिन जब व्यक्ति का कृष्ण के साथ एक मित्र, स्वामी, पुत्र, या प्रेमी के रूप में संबंध होता है, तो फिर श्रद्धा समाप्त हो जाती है.

स्रोत : अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “रानी कुंती की शिक्षाएँ” पृ. 77.
अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2012 संस्करण, अंग्रेजी), “भगवान चैतन्य, स्वर्ण अवतार की शिक्षाएँ”, पृ. 78.
अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “आत्म साक्षात्कार का विज्ञान” पृ. 352.

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