“लोगों के लिए श्री कृष्ण के महान एश्वर्य को समझना असंभव है. इसलिए चैतन्य महाप्रभु हमसे भगवान के बारे में अटकलें लगाना छोड़ने के लिए कहते हैं. एक कुँए में एक मेंढक की कहानी है जिसके पास उसका मित्र आकर कहता है, “मेरे प्रिय मेंढक, मैंने अभी-अभी एक बहुत बड़ी जलराशि देखी है.” मेंढक ने पूछा “कैसा जल है वह?”. “प्रशांत महासागर,” मित्र ने कहा. “ओह, प्रशांत महासागर! क्या वह इस कुँए से बड़ा है? क्या वह चार फीट है? दस फीट है?

भगवान के बारे में अनुमान लगाने का हमारा प्रयास बहुत कुछ ऐसा ही है. यदि हम भगवान को समझना चाहते हैं, तो हमें स्वयं भगवान से ही समझने का प्रयास करना होगा. हमारा कोई पड़ोसी हो सकता है जो बहुत संपन्न, प्रभावशाली, बुद्धिमान, शक्तिशाली और सुंदर हो, और हम उसके वैभव का अनुमान लगा सकते हैं, लेकिन यदि हम उसके मित्र बन जाएँ, तो हम स्वयं उसके द्वारा स्वयं पर बोलते हुए सुनकर उसकी स्थिति को समझ सकते हैं. भगवान हमारी कल्पना के अधीन नहीं हो सकते. हमारी कल्पना सीमित है, और हमारा बोध अपूर्ण है. भक्ति-मार्ग की प्रक्रिया समर्पण की प्रक्रिया है. हमें बस बहुत विनम्र और समर्पित हो जाने और कृष्ण की प्रार्थना गंभीरता से करने की आवश्यकता है, “कृष्ण, मेरे लिए आपको जानना असंभव है. कृपया बताएँ कि मैं आपको कैसे जान सकता हूँ.” और तब यह संभव हो जाएगा. भगवद्-गीता के ग्यारहवें अध्याय में अर्जुन इसी ढंग से भगवान से प्रति प्रस्तुत होते हैं.”

स्रोत : अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2007 संस्करण, अंग्रेजी), “देवाहुति के पुत्र, भगवान कपिल की शिक्षाएँ”, पृ. 223.

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