भगवान कृष्ण मूल परम व्यक्तित्व, परम भगवान हैं, और दूसरे सभी विष्णु रूप – चार हाथ वाले, शंख, कमल, दंड, और चक्र से सुशोभित – कृष्ण के संपूर्ण विस्तार हैं. इन चौबीस रूपों को प्रभाव (चार हाथों वाले) रूप का विलास प्रकटन कहा जाता है, और प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व (शंख, कमल, दंड, और चक्र) के अनुसार उनका नामकरण भिन्न-भिन्न किया गया है. भगवान कृष्ण के वे विस्तार जिनकी भौतिक रचना होती है, अवतार कहलाते हैं. अवतार शब्द का अर्थ है “वह जो उतरता है”, और इस प्रसंग में इस शब्द का अर्थ विशेष रूप से उसके लिए हुआ है जो आध्यात्मिक आकाश से उतरता है. आध्यात्मिक आकाश में असंख्य वैकुंठ ग्रह होते हैं, और इन ग्रहों से भगवान के परम व्यक्तित्व के विस्तार इस ब्रम्हांड में आते हैं. छः प्रकार के अवतार होते हैं 1) पुरुष अवतार, 2) लीला अवतार, 3) गुण-अवतार, 4) मानवांतर अवतार, 5) शाक्तवेष अवतार कृष्ण पहले तीन पुरुष-अवतार लेते हैं, जो महा-विष्णु या कारणोदकशायी अवतार, गर्भोदकशायी अवतार और क्षीरोदकशायी अवतार हैं. कृष्ण के लीला अवतारों में 1) कुमार, 2) नारद, 3) वराह, 4) मत्स्य, 5) यज्ञ, 6) नर-नारायण, 7) कर्दमी कपिल, 9) हयशीर्ष, 10) हंस, 11) ध्रुवप्रिय या पृष्णिगर्भ, 12) ऋषभ, 13) पृथु, 14) नृसिंह. 15) कूर्म, 16) धन्वंतरि, 17) मोहिनी, 18) वामन, 19) भार्गव (परशुराम), 20) राघवेंद्र, 21) व्यास, 22) प्रालंबरी बलराम, 23) कृष्ण, 24) बुद्ध, 25) कल्कि, शामिल हैं. ये पच्चीस लीला अवतार ब्रम्हा के एक दिन में प्रकट होते हैं, जिसे कल्प (ब्रह्मा के दिन के विवरण के लिए जगत उत्पत्ति अनुभाग देखें) कहा जाता है. इसलिए, इन लीला अवतारों को कभी-कभी कल्प-अवतार कहा जाता है. इनमें से, हंस और मोहिनी के अवतार स्थायी नहीं हैं, लेकिन कपिल, दत्तात्रेय, ऋषभ, धन्वंतरि, और व्यास पाँच शाश्वत रूप हैं, और वे अधिक प्रसिद्ध हैं. कछुए कूर्म, मछली मत्स्य, नर-नारायण, वराह, हयशीर्ष, पृष्णिगर्भ, और बलराम अवतारों को वैभव रूप (दो हाथ वाले) का अवतार माना जाता है. कृष्ण के गुण अवतार, या प्रकृति के गुणात्मक प्रकार के अवतार हैं 1) ब्रम्ह, 2) विष्णु, 3) शिव. ब्रम्ह एक जीव हैं, लेकिन अपनी आध्यात्मिक सेवा के कारण वे बहुत बलशाली हैं. इस आदि जीव, भौतिक लालसा की अवस्था के स्वामी, को असंख्य जीवों की रचना करने के लिए गर्भोदकशायी विष्णु से प्रत्यक्ष बल मिलता है. यदि किसी कल्प में ब्रम्हा की क्षमता में कार्य करने के लिए कोई उपयुक्त प्राणी नहीं है, तो गर्भोदकशायी विष्णु स्वयं ब्रम्हा के रूप में प्रकट होते हैं और तदनुसार कार्य करते हैं. इसी प्रकार, जब ब्रम्हांड को नष्ट करने की आवश्यकता होती है तो भगवान शिव के रूप में विस्तार लेकर स्वयं परम भगवान कार्यरत हो जाते हैं. भगवान शिव जीवों में से एक नहीं हैं, वह, स्वयं कृष्ण के जैसे न्यूनाधिक हैं. इस संबंध में दूध और दही का उदाहरण अक्सर दिया जाता है – दही दूध से बनता है, लेकिन फिर भी दही का उपयोग दूध के रूप में नहीं किया जा सकता, भगवान शिव कृष्ण के विस्तार हैं, किंतु वे कृष्ण का स्थान नहीं ले सकते, ना ही हम भगवान शिव से वह आध्यात्मिक उद्धार प्राप्त कर सकते हैं जो हमें कृष्ण प्राप्त होता है. मूल अंतर यही है कि भगवान शिव का भौतिक जीवन से एक संबंध है, लेकिन विष्णु, या भगवान कृष्ण को भौतिक प्रकृति से कोई लेना-देना नहीं है. हालाँकि विष्णु अवतार प्रत्येक ब्रम्हांड में अच्छाई के गुण का स्वामी होता है, किंतु भौतिक प्रकृति का उस पर लेशमात्र भी प्रभाव नहीं पड़ता है. हालाँकि विष्णु, कृष्ण के स्तर के हैं, किंतु मूल स्रोत कृष्ण ही हैं. विष्णु एक अंश हैं, लेकिन कृष्ण संपूर्ण हैं. ब्रम्ह-संहिता में एक मूल मोमबत्ती का उदाहरण दिया गया है जो एक दूसरी मोमबत्ती को जलाती है. हालाँकि दोनों ही मोमबत्तियाँ समान शक्ति रखती हैं, किंतु एक ही को मूल माना जाता है, और दूसरी को मूल से प्रकाशित माना जाता है. विष्णु रूपी विस्तार उस दूसरी मोमबत्ती के समान है. वे कृष्ण की ही तरह बलशाली हैं, लेकिन वास्तविक विष्णु कृष्ण हैं. ब्रम्हा और भगवान शिव परम भगवान के आज्ञाकारी सेवक हैं, और परम भगवान विष्णु के रूप में कृष्ण का ही विस्तार हैं. कृष्ण के मानवंतर-अवतारों में निम्न सम्मिलित हैं 1) यज्ञ, 2) विभु, 3) सत्यसेन, 4) हरि, 5) वैकुंठ, 6) अजित, 7) वामन, 8) सार्वभौम, 9) ऋषभ, 10) विश्वक्षेण, 11) धर्मसेतु, 12) सुदामा, 13) योगेश्वर, 14) बृहद्भानु. इन चौदह मानवंतर-अवतारों में से, यज्ञ और वामन लीला-अवतार भी हैं. इन चौदह मानवंतर अवतारों को वैभव-अवतार भी कहा जाता है. मानवंतर अवतारों की गणना करना असंभव है. एक कल्प, या ब्रम्हा के एक दिन में, चौदह मनु अवतरित होते हैं. ब्रम्हा के एक दिन की गणना 4 अरब तीस करोड़ बीस लाख वर्षों के तुल्य होती है, और ब्रम्हा ऐसे सौ वर्षों तक जीवित रहते हैं, इस प्रकार यदि ब्रह्मा के एक दिन में चौदह मनु प्रकट होते हैं, तो ब्रह्मा के एक महीने में 420 मनु होते हैं, और ब्रह्मा के एक वर्ष के दौरान 5,040 मनु होते हैं. ऐसी गणना की जाती है कि एक ब्रम्हा के जीवनकाल में 504,000 मनु प्रकट होते हैं. चूँकि ब्रम्हांड अनगिनत होते हैं, कोई भी मानवंतर अवतारों की कुल संख्या की क्ल्पना नहीं कर सकता है. चार युग अर्थात् सत्य-युग, त्रेता-युग, द्वापर-युग और कलि-युग पर आधारित कृष्ण के युग अवतार चार हैं. प्रत्येक सहस्त्राब्दि मे परम भगवान अवतार लेते हैं, और प्रत्येक अवतार का रंग युग के अनुसार अलग होता है. सत्य-युग में भगवान के अवतार का रंग श्वेत होता है, त्रेता-युग में लाल, द्वापर युग और कलि युग में उनका रंग कुछ काला होता है. हालाँकि, विशेष कलि-युग में, उनका रंग पीली छँटा का होता है (जैसे चैतन्य महाप्रभु के प्रसंग में है). कृष्ण के शाक्त्यवेष-अवतारों में निम्न शामिल हैं 1) कपिल, 2) ऋषभ, 3) अनंत, 4) ब्रम्ह (कुछ बार भगवान स्वयं ही ब्रम्ह बन जाते हैं), 5) चतुषाण (ज्ञान का अवतार), 6) नारद (आध्यात्मिक सेवा का अवतार), 7) राजा पृथु (शासकीय शक्ति का अवतार), और 8) परशुराम (अनैतिक सिद्धांतों को मिटाने वाला अवतार). शाक्त्यवेष अवतारों की कोई सीमा नहीं है और उन्हें गिना नहीं जा सकता. शाक्त्यवेष अवतार दो प्रकार के होते हैं – प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष. जब स्वयं भगवान आते हैं, तो उन्हें साक्षात्, या प्रत्यक्ष शाक्त्यवेष अवतार कहा जाता है, और जब वे किसी प्राणी को स्वयं का प्रतिनिधित्व करने के लिए सशक्त बनाते हैं तो उस प्राणी को अप्रत्यक्ष या अवेष अवतार कहा जाता है. चार कुमार, नारद, पृथु और परशुराम अप्रत्यक्ष अवतार के उदाहरण हैं. शेष अवतार और अनंत अवतार प्रत्यक्ष य साक्षात् अवतार के उदाहरण हैं. अनंत में सभी ग्रहों को बनाए रखने के लिए शक्ति का निवेश किया जाता है, और शेष अवतार में परम भगवान की सेवा के लिए शक्ति का निवेश किया जाता है. इसलिए यह निष्कर्ष निकालना सुरक्षित है कि कृष्ण के विस्तार और अवतारों का कोई अंत नहीं है. इन निष्कर्षों की पुष्टि श्रीमद्-भागवत्म् (1.3.26) में भी की गई है.

स्रोत:अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2012 संस्करण अंग्रेजी), “परम भगवान का संदेश”, पृ. 5
अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण अंग्रेजी), “आत्म साक्षात्कार का विज्ञान”, पृ. 146
अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2012 संस्करण अंग्रेजी), “भगवान चैतन्य, स्वर्ण अवतार की शिक्षाएँ”, पृ. 84, 90, 95, 101, 103

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