हम वेश्याओं से भी घृणा नहीं कर सकते यदि वे भगवान की भक्त हों. आज तक भी भारत के महान नगरों में कई ऐसी वेश्याएँ हैं जो भगवान की गंभीर भक्त हैं. संयोग की माया से व्यक्ति को ऐसा व्यवसाय चुनना पड़ सकता है जो समाज में बहुत सम्माननीय न हो, लेकिन इससे व्यक्ति द्वारा भगवान की भक्ति सेवा में बाधा नहीं पड़ती. भगवान की भक्ति सेवा सभी परिस्थितियों में अनियंत्रणीय होती है. इसलिए यहाँ समझ में आता है कि उन दिनों में भी, लगभग पाँच हज़ार वर्ष पहले, द्वारका जैसे नगर में भी वेश्याएँ थीं, जहाँ भगवान कृष्ण रहते थे. इसका अर्थ है कि समाज के उचित समारक्षण के लिए वेश्याएँ आवश्यक नागरिक होती हैं. सरकार मदिरा की दुकान खोलती है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि सरकार मदिरापान को बढ़ावा देती है. विचार यह है कि व्यक्तियों का ऐसा वर्ग होता है जो किसी भी परिस्थिति में मदिरापान करता है, और ऐसा अनुभव किया गया है कि बड़े शहरों में प्रतिबंध ने मदिरा की अवैध तस्करी को बढ़ावा दिया है. उसी प्रकार, जो पुरुष घर पर संतुष्ट नहीं होते हैं उन्हें ऐसी छूट चाहिए होती है, और यदि कोई वेश्याएँ नहीं होंगी, तो फिर इस तरह के हीन पुरुष अन्य को वेश्यावृत्ति में झोकेंगे. यह बेहतर होगा कि व्यापार के स्थानों पर वेश्याएँ उपलब्ध हों ताकि समाज की पवित्रता बनी रहे. वेश्याओं का ऐसा वर्ग बनाए रखना समाज में वेश्यावृत्ति को प्रोत्साहित करने से बेहतर है. सभी लोगों को भगवान का भक्त बनाने के लिए जागृत करना ही सही जानकारी है, और उससे जीवन का क्षय करने वाले सभी तत्वों पर नियंत्रण रहेगा. विष्णुस्वामी वैष्णव संप्रदाय के एक महान आचार्य, श्री बिल्वमंगल ठाकुर, अपने गृहस्थ जीवन में एक वेश्या से अत्यधिक आसक्त थे जो भगवान की एक भक्त थी. एक रात जब ठाकुर चिंतामणि के घर पर घनघोर बारिश और तूफान में आये, तो चिंतामणि यह देखकर आश्चर्यचकित रह गईं कि ठाकुर कैसे ऐसी भयंकर रात में एक उफनती नदी को पार करके आ पाए थे जिसमें भरपूर लहरें थीं. उसने ठाकुर बिल्वमंगल से कहा कि उनका किसी उसके जैसी साधारण महिला के शरीर के लिए आकर्षण का उचित उपयोग हो सकेगा यदि उसे भगवान की पारलौकिक सुंदरता के लिए आकर्षण अर्जित करने के लिए भगवान की भक्ति सेवा में परिवर्तित किया जा सके. वह ठाकुर के लिए महान समय साबित हुआ, और ठाकुर एक वेश्या के शब्दों द्वारा आध्यात्मिक आत्मसाक्षात्कार की ओर मुड़ गए. बाद में ठाकुर ने वेश्या को अपना आध्यात्मिक गुरु स्वीकार किया, और उनके साहित्यिक कर्म में कई स्थानों पर उन्होंने चिंतामणि के नाम को गौरवान्वित किया, जिसने उन्हें सही मार्ग दिखाया. भागवद्-गीता (9.32) में भगवान कहते हैं, “हे पृथ के पुत्र, वे भी जो हीन-जन्म चांडाल हैं और जो नास्तिकों के घर में पैदा हुए हैं, और वेश्याएँ भी, जीवन की परिपूर्णता अर्जित करेंगे, यदि वे मेरी विशुद्ध भक्ति सेवा की शरण में आएँ, क्योंकि भक्ति सेवा के मार्ग में हीन जन्म और जीविका के कारण कोई अवरोध नहीं होता. यह मार्ग उन सभई के लिए खुला है जो इसे स्वीकार करते हैं.”

स्रोत: अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, प्रथम सर्ग, अध्याय 11- पाठ 19

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