भगवद-गीता का कथन है कि परम भगवान श्री कृष्ण का व्यक्तित्व अपने समग्र विस्तार द्वारा इन भौतिक ब्रम्हांडो का पालन करता है. इसलिए यह पुरुष रूप समान सिद्धांत की पुष्टि है. भगवान के परम व्यक्तित्व वासुदेव, या भगवान कृष्ण, जो राजा वासुदेव या राजा नंद के पुत्र के रूप में प्रसिद्ध हैं, वे सभी एश्वर्यों, सभी शक्तियों, समस्त प्रसिद्धि, सौंदर्य, समस्त ज्ञान और समस्त आत्मत्याग से पूर्ण हैं. उनके ऐश्वर्य का कुछ अंश अवैयक्तिक ब्राम्हण के रूप में, और उनके ऐश्वर्य का कुछ अंश परमात्मा के रूप में प्रकट हुआ है. भगवान श्री कृष्ण का समान व्यक्तित्व की यह पुरुष विशेषता ही भगवान का मूल परमात्मा प्रकटन है. भौतिक जगत में तीन पुरुष विशेषताएँ हैं, और यह रूप, जो कारणोदकशायी विष्णु के रूप में ज्ञात है, तीन में से पहला है. अन्य को गर्भोदकशायी विष्णु और क्षीरोदकशायी विष्णु के रूप में जाना जाता है, जिन्हें हम एक के बाद एक जानेंगे. इस क्षीरोदकशायी विष्णु के रोमछिद्रों से असंख्य ब्रम्हांड उपजते हैं, और प्रत्येक ब्रम्हांड में भगवान गर्भोदकशायी विष्णु के रूप में प्रवेश लेते हैं. भगवद्-गीता में यह वर्णन भी मिलता है कि भौतिक संसार की उत्पत्ति एक निश्चित अंतराल पर होती है और फिर उसका विनाश हो जाता है. यह निर्माण और विनाश बद्ध आत्माओं, या नित्य-बद्ध जीवों के कारण परम इच्छा द्वारा ही किया जाता है. नित्य बद्ध, या शाश्वत बद्ध आत्माओं में, व्यक्तिगत बोध या अहंकार होता है, जो उनको इंद्रिय भोग में रत करता है, जिसे करने के लिए वे वैधानिक रूप से अक्षम हैं, भगवान ही एकमात्र भोगी हैं, और अन्य सभी भोगपात्र हैं. जीव प्रमुख भोक्ता हैं. लेकिन शाश्वत बद्ध आत्माओं को, इस वैधानिक स्थिति की विस्मृतिवश, भोग की सश्क्त कामना होती है. पदार्थ का भोग करने का अवसर बद्ध आत्माओं को भौतिक संसार में दिया जाता है, और साथ ही उन्हें अपनी वास्तविक वैधानिक स्थित को समझने का अवसर भी दिया जाता है. वे भाग्यशाली जीव जो सत्य को पकड़ लेते हैं और भौतिक संसार में कई जन्मों के बाद वासुदेव के चरण कमलों में समर्पण करते हैं, शाश्वत मुक्त आत्माओं में सम्मिलित हो जाते हैं और इस प्रकार उन्हें परम भगवान के धाम में प्रवेश करने की आज्ञा मिल जाती है. उसके बाद, ऐसे भाग्यशाली जीवों को दोबारा सामयिक भौतिक जगत में नहीं आना पड़ता. लेकिन जो वैधानिक सत्य को ग्रहण नहीं कर पाते वे भौतिक जगत के संहार के समय फिर से महत्तत्व में विलीन हो जाते हैं. जब जगत उत्पत्ति दोबारा निर्धारित होती है, यह महत्-तत्व फिर से स्वतंत्र कर दिया जाता है. इस महत्-तत्व में बद्ध आत्माओं सहित भौतिक उत्पत्ति के सभी तत्व शामिल होते हैं. प्राथमिक रूप से यह महत्-तत्व सोलह भागों में बंटा होता है, पाँच स्थूल भौतिक तत्व और इंद्रियों के ग्यारह कार्यकारी उपकरण. यह साफ़ आकाश में बादल के जैसा है. आध्यात्मिक आकाश में, ब्राम्हण की दीप्ति सभी ओर व्याप्त होती है, औऱ संपूर्ण व्यवस्था आध्यात्मिक प्रकाश से दीप्त होती है. महत्-तत्व विराट, असीमित आध्यात्मिक आकाश के कुछ कोनों में एकत्रित होता है, और इस प्रकार कुछ भाग जो महत्-तत्व से ढँका होता है, भौतिक आकाश कहलाता है. आध्यात्मिक आकाश का यह भाग, जो महत्-तत्व कहलाता है, संपूर्ण आध्यात्मिक आकाश का क्षुद्र हिस्सा होता है, और इस महत्-तत्व के भीतर असंख्य ब्रम्हांड होते हैं. ये सभी ब्रम्हांड सामूहिक रूप से कारणोदकशायी विष्णु द्वारा निर्मित होते हैं, जिन्हें महा-विष्णु भी कहा जाता है, जो भौतिक आकाश को गर्भवान करने के लिए बस अपना दृष्टिपात करते हैं. प्रथम पुरुष कारणोदकशायी विष्णु हैं.उनके रोम छिद्रों से असंख्य ब्रम्हांड उत्पन्न हुए हैं. प्रत्येक ब्रम्हांड में, पुरुष गर्भोदकशायी विष्णु के रूप में प्रवेश करता है. वह आधे ब्रम्हांड में लेटे हुए हैं जो उनके शरीर के जल से भरा हुआ है. और गर्भोदकशायी विष्णु की नाभि से कमल पुष्प की डंठल निकली हुई है, जो ब्रम्हा के जन्म का स्थान है, जो सभी जीवों के पिता और सभी देवता अभियंताओं के स्वामी हैं जो ब्रम्हांडीय व्यवस्था के परिपूर्ण आकल्पन और प्रचालन में लगे हुए हैं. कमल की डंठल के भीतर ग्रह प्रणाली के चौदह विभाग हैं, और भूमंडलीय ग्रह मध्य में स्थित हैं. ऊपर की ओर अन्य, बेहतर ग्रह प्रणालियाँ हैं, और सर्वोच्च मंडल ब्रम्हलोक या सत्यलोक कहलाता है. भूमंडलीय ग्रह के नीचे की ओर सात निम्नतर ग्रह प्रणालियाँ हैं जिनमें एसुर और अन्य समान भौतिक जीव रहते हैं. गर्भोदकशायी विष्णु से क्षीरोदकशायी विष्णु का विस्तार है, जो सभी जीवों के सामूहिक परमात्मा हैं. उन्हें हरि कहा जाता है, और उनके द्वारा ब्रम्हांड में सभी अवतार विस्तार पाते हैं. इसलिए, निष्कर्ष यह है कि पुरुष अवतार तीन विशेषताओं में प्रकट होता है — पहले कारणोदकशायी जो महत्-तत्व में सकल भौतिक सामग्री की रचना करते हैं, दूसरे गर्भोदकशायी जो प्रत्येक ब्रम्हांड में प्रवेश करते हैं, और तीसरे क्षीरोदकशायी विष्णु जो प्रत्येक भौतिक वस्तु, जैविक या अजैविक, के परमात्मा हैं. जो भगवान के परम व्यक्तित्व की इन समग्र विशेषताओं को जानता है, वह परम भगवान को समुचित रूप से जानता है, और इस प्रकार जानने वाला जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था और रोगों की भौतिक परिस्थितियों से स्वतंत्र हो जाता है, जैसा कि भगवद्-गीता में पुष्टि की गई है, इस श्लोक में महा-विष्णु की विषय वस्तु का संक्षेप दिया गया है. महा-विष्णु अपनी स्वतंत्र इच्छा से आध्यात्मिक आकाश में कहीं लेटे होते हैं. इस प्रकार वे कारण के समुद्र में लेटते हैं, जहाँ से वे अपनी भौतिक प्रकृति को निहारते हैं, और तुरंत महत्-तत्व रचित हो जाता है. इस प्रकार भगवान की शक्ति से विद्युतीकृत होकर, भौतिक प्रकृति एक ही क्षण में असंख्य ब्रम्हांडों की रचना कर देती है, ठीक वैसे ही जैसे एक वृक्ष समय के साथ स्वयं को पके हुए फलों से सुसज्जित कर लेता है. वृक्ष का बीज रोपने वाला बोता है, और वृक्ष या बेल समय के साथ बहुत से फलों से आच्छादित हो जाते हैं. इसलिए कारण समुद्र को कारणात्मक समुद्र कहा जाता है. कारण का अर्थ “हेतुक” होता है. हमें नास्तिक अवधारणा को मूर्खतापूर्ण रूप से स्वीकार नहीं करना चाहिए. नास्तिकों का वर्णन भगवद्-गीता में दिया गया है. नास्तिक सर्जक में विश्वास नहीं करता, लेकिन वह जगतोत्पत्ति को समझाने के लिए कोई अच्छी अवधारणा नहीं दे पाता. भौतिक प्रकृति के पास पुरुष की शक्ति के बिना उत्पत्ति का कोई बल नहीं होता, वैसे ही जैसे प्रकृति, या स्त्री, बिना पुरुष के संबंध के एक शिशु को उत्पन्न नहीं कर सकती. पुरुष गर्भाधान करता है, और प्रकृति जन्म देती है. हमें बकरी की गर्दन की मांसल थैलियों से दूध की आशा नहीं करनी चाहिए, यद्यपि वे स्तन के समान लगती हैं. उसी प्रकार, हमें भौतिक सामग्री से कोई रचनात्मक शक्ति की आशा नहीं करनी चाहिए; हमें पुरुष की शक्ति का विश्वास करना चाहिए, जो प्रकृति को गर्भवती करता है. चूँकि भगवान ने ध्यानावस्था में शयन की इच्छा की, तब भौतिक ऊर्जा ने क्षण भर में असंख्य ब्रम्हांडों की रचना कर दी, उनमें से प्रत्येक में भगवान शयन करते हैं, और इस प्रकार सभी ग्रह और विभिन्न सामग्रियाँ भगवान की इच्छा से क्षण भर में रचित कर दी गईं. भगवान की शक्तियाँ असीमित हैं, औऱ इस प्रकार वे परिपूर्ण योजना द्वारा जैसा चाहें वैसा कर सकते हैं, यद्यपि व्यक्तिगत रूप से उन्हें कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं है. कोई भी उनसे महत्तर या उनके बराबर नहीं है. यही वेदों का मत है.

स्रोत : अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी) “श्रीमद् भागवतम्”, प्रथम सर्ग, अध्याय 3 – पाठ 1 और 2

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