भगवान के असंख्य अवतार हैं, और ऊँकार उनमें से एक है. जैसा कि कृष्ण भगवद्-गीता में बताते हैं: “स्पंदनों में मैं ऊँ उच्चारण हूँ”. (भ.गी. 9.7) इसका अर्थ है कि ऊँकार कृष्ण से भिन्न नहीं है. अव्यक्तिवादी; हालाँकि भगवान के व्यक्तित्व, कृष्ण से अधिक ऊँकार को महत्व देते हैं. वास्तव में; हालाँकि, परम भगवान का प्रतिनिधि अवतार भगवान से अभिन्न होता है. इस तरह का अवतार या प्रतिनिधित्व आध्यात्मिक रूप से परम भगवान जैसा ही होता है. इसलिए ऊँकार सभी वेदों का सर्वोच्च प्रतिनिधित्व है. वास्तव में, वैदिक मंत्रो या ऋचाओं का पारलौकिक महत्व होता है क्योंकि उनमें ऊँ का उपसर्ग लगाया जाता है. वैष्णव ऊँ का अभिप्राय इस प्रकार लगाते हैं: ओ अक्षर भगवान के परम व्यक्तित्व का परिचायक होता है; उ अक्षर, कृष्ण की शाश्वत संगिनी श्रीमती राधा रानी का परिचायक है; और म अक्षर परम भगवान के शाश्वत सेवक, जीव का परिचायक होता है. ऊँकार परम भगवान के किसी भी अन्य अवतार के जैसा ही है और परम भगवान का परम मंगल प्रतिनिधि है. ब्रम्ह संहिता में कृष्ण की बाँसुरी का बढ़िया वर्णन दिया गया है: “जब कृष्ण ने अपनी बाँसुरी बजाना शुरू की, तब ब्रम्हा के कानों में ध्वनि स्पंदन वैदिक मंत्र ऊँ के रूप में प्रवष्ट हुआ”. यह ऊँ तीन अक्षरों से निर्मित है. अ, ऊ, और म — और यह परम भगवान से हमारे संबंध को वर्णित करता है, हमारी गतिविधियाँ जिनसे हम आध्यात्मिक धरातल पर प्रेम की पूर्णता और प्रेम की असली अवस्था को अर्जित कर सकते हैं. जब कृष्ण की बाँसुरी का ध्वनि स्पंदन ब्रम्हा के मुख से व्यक्त किया जाता है, तो वह गायत्री बन जाता है. अतः कृष्ण की बाँसुरी के ध्वनि स्पंदन से प्रभावित होकर, इस भौतिक संसार के परम प्राणी और पहले जीव ब्रम्हा को एक ब्राम्हण के रूप में दीक्षा प्राप्त हुई थी.


स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2012 संस्करण, अंग्रेजी), “भगवान चैतन्य, स्वर्ण अवतार की शिक्षाएँ”, पृ. 254, 255, और 36

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