“ब्रम्हा का पद ब्रम्हांड में सर्वोच्च उत्तरदायित्व का पद है, और यह पद ब्रम्हांड के सबसे योग्य व्यक्तित्व को सौंपा जाता है. कभी-कभी भगवान के परम व्यक्तित्व को ही ब्रम्हा बनना पड़ता है जब इस पद को धारण करने वाला कोई उपयुक्त व्यक्ति नहीं होता. भौतिक संसार में, ब्रम्हा भगवान के परम व्यक्तित्व के पूर्ण प्रतिनिधि हैं, और अतींद्रिय ध्वनि, प्रणव, उनसे ही आती है. इसलिए उन्हें विविध ऊर्जाओं के साथ निवेशित किया जाता है, जहाँ से इंद्र, चंद्र और वरुण जैसे सभी देवता प्रकट होते हैं. उनके अनुभवातीत मूल्य को कम नहीं किया जाना चाहिए, भले ही उन्होंने स्वयं अपनी पुत्री का भोग करने की प्रवृत्ति प्रदर्शित की हो. ब्रम्हा द्वारा ऐसी प्रवृत्ति प्रदर्शित करने का कोई उद्देश्य है, और उन्हें एक सामान्य जीव की तरह दोष नहीं दिया जाना चाहिए.

बलवान इंद्रिय-ग्रामो विध्वंसम् अपि कर्षति (भागवतम् 9.19.17).

ऐसा कहा गया है कि इंद्रियाँ इतनी उग्र और बलवान होती हैं कि वे सबसे समझदार और विद्वान व्यक्ति को भी भटका सकती हैं. इसलिए समझाया जाता है कि अपनी माँ, बहन या बेटी तक के साथ भी अकेला नहीं रहना चाहिए. विध्वंसम् अपि कर्षति का अर्थ है कि सबसे विद्वान लोग भी भोग की कामना के वश में आ जाते हैं. मैत्रेय ने ब्रह्मा की ओर से इस विसंगति को बताने में संकोच किया, जो अपनी ही पुत्री के प्रति कामाकर्षित थे, लेकिन फिर भी उन्होंने इसका उल्लेख किया है क्योंकि कभी-कभी ऐसा होता है, और स्वयं ब्रम्हा इसके जीवंत उदाहरण हैं, हालाँकि वे आदिकालीन जीव हैं और समस्त ब्रम्हांड में सबसे ज्ञानवान हैं. यदि ब्रम्हा काम के वश में आ सकते हैं, तो फिर दूसरों का क्या, जो कई सांसारिक दुर्बलताओं की ओर उन्मुख होते हैं? ब्रम्हा की इस असाधारण अमरता का होना किसी विशेष कल्प में सुना गया था. लेकिन यह उस कल्प में नहीं हो सकता था जिसमें ब्रह्मा ने भगवान से सीधे श्रीमद-भागवतम के चार आवश्यक श्लोकों को सुना क्योंकि, भागवतम् पर शिक्षा देने के बाद, भगवान ने ब्रह्मा को वर दिया, कि वे किसी भी कल्प में कभी भी किंकर्तव्यविमूढ़ नहीं होंगे. इससे पता लगता है कि श्रीमद्-भागवतम् सुनने से पहले हो सकता है कि वे ऐसी विषयासक्ति के अधीन हो गये होंगे, लेकिन स्वयं भगवान से श्रीमद्-भागवतम् को सुनने के बाद, ऐसी किसी भी विफलता की कोई संभावना नहीं थी.

हालांकि, इस प्रसंग का गंभीर संज्ञान लेना चाहिए. मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, और विपरीत लिंग के साथ उसका अप्रतिबंधित मेल-जोल पतन की ओर ले जाता है. पुरुष और महिलाओं की ऐसी सामाजिक स्वतंत्रता, विशेषकर युवाओं के बीच, निश्चित ही आध्यात्मिक प्रगति के पथ में बड़ी रुकावट है. भौतिक बंधन केवल यौन बंधन के कारण होता है, और इसलिए स्त्री और पुरुष का अप्रतिबंधित मेल-जोल निश्चित रूप से एक महान बाधा है. मैत्रेय ने ब्रम्हा की ओर से यह उदाहरण हमारा ध्यान इस महान खतरे की ओर ले जाने के लिए ही किया है.

मरीचि जैसे ऋषि गणों द्वारा अपने महान पिताओं के कार्यकलापों का विरोध करना बिलकुल अनुचित नहीं था. वे अच्छी तरह से जानते थे कि भले ही उनके पिता ने गलती की थी, ऐसा होने के पीछे अवश्य कोई बड़ा उद्देश्य होगा, अन्यथा ऐसे महान व्यक्ति ऐसी गलती कभी नहीं करते. ऐसा संभव है कि ब्रम्हा अपने अधीनों को स्त्रियों से उनके व्यवहार में मानवीय दुर्बलताओं के प्रति सचेत करना चाहते हों. यह उन व्यक्तियों के लिए बहुत हानिकारक होता है जो आत्म-ज्ञान के पथ पर हैं. इसलिए, ब्रम्हा जैसे महान व्यक्तित्व को उनकी त्रुटि होने पर भी उपेक्षित नहीं करना चाहिए, ना ही मरीचि के नेतृत्व में महान ऋषियों ने उनके असामान्य व्यवहार के लिए कोई असम्मान किया.

ब्रम्हा का पद ब्रम्हांड में सर्वोच्च है, और लगता है कि हम जिस ब्रम्हांड में हैं उसके अतिरिक्त भी कई ब्रम्हा और कई ब्रम्हांड हैं. जो भी इस पद की पूर्ति करता है वह अवश्य ही अपने व्यवहार में आदर्श होगा, क्योंकि ब्रम्हा समस्त जीवों के लिए उदाहरण प्रस्तुत करते हैं. ब्रम्हा, वह जीव जो सबसे पवित्र और आध्यात्मिक रूप से उन्नत हैं, को भगवान के व्यक्तित्व के समकक्ष एक पद सौंपा गया है. संभोग के लिए वासना इतनी प्रबल है कि यहाँ ऐसा प्रतीत होता है कि ब्रह्मा को मरीचि जैसे अपने बड़े पुत्रों द्वारा अनुरोध किए जाने के बावजूद अपने दृढ़ निश्चय से विमुख नहीं किया जा सकता था. इसलिए, महान पुत्रों ने ब्रम्हा की सद्बुद्धि के लिए परम भगवान की प्रार्थना प्रारंभ कर दी. यह केवल परमपिता परमात्मा की कृपा ही है कि किसी को वासनायुक्त भौतिक इच्छाओं के प्रलोभन से बचाया जा सके. प्रभु उन भक्तों को सुरक्षा प्रदान करते हैं जो हमेशा उनकी पारलौकिक प्रेममयी सेवा में लगे रहते हैं, और उनकी असीम दया के कारण वे दुर्घटनावश हुए भक्त के पतन को क्षमा कर देते हैं. इसलिए, मरीचि जैसे ऋषियों ने प्रभु की दया के लिए प्रार्थना की, और उनकी प्रार्थना फलदायी थी. पापपूर्ण कार्यों की भरपाई करने का सबसे अच्छा तरीका है, एक बार में अपना शरीर छोड़ देना, और समस्त जीवों के प्रमुख ब्रह्मा ने इसे अपने व्यक्तिगत उदाहरण से दिखाया. ब्रम्हा के जीवन की असाधारण अवधि है, लेकिन उन्हें अपने भयंकर पाप के कारण अपनी काया छोड़ना पड़ी, भले ही उन्होंने वास्तव में ऐसा किए बिना केवल अपने मन में इसका विचार किया था.

यह उन जीवित प्राणियों के लिए एक शिक्षा है, जहाँ बताया गया है कि अबाधित यौन जीवन में लिप्त रहना कितना पापपूर्ण है. यहां तक कि घृणित यौन जीवन के बारे में सोचना भी पापपूर्ण है, और इस तरह के कृत्यों की भरपाई के लिए, व्यक्ति को अपना शरीर त्यागना होगा. दूसरे शब्दों में, व्यक्ति के जीवन की अवधि, कृपा, एश्वर्य, इत्यादि पापपूर्ण कृत्यों से कम हो जाती है, और पाप कृत्यों का सबसे हानिकारक प्रकार अप्रतिबंधित यौन कर्म है. अज्ञान पापमय जीवन का कारण है, या पापमय जीवन सकल अज्ञानता का कारण है. अज्ञान की विशेषता अंधकार या कोहरा है. अंधेरा या कोहरा अभी भी पूरे ब्रह्मांड को समेटे हुए है, और सूर्य ही एकमात्र प्रतिरोधी सिद्धांत है. जो भगवान का आश्रय लेता है, वह सदा प्रकाश में रहता है, उसे कोहरे या अज्ञान के अंधकार में विलीन होने का कोई भय नहीं है.

जैसे अग्नि प्रदूषित हुए बिना प्रत्येक वस्तु का उपभोग कर सकती है, उसी तरह, भगवान की कृपा से, ब्रम्हा के महान गुणों की अग्नि ने अपनी ही पुत्री के साथ यौन संबंध की उनकी इच्छा को समाप्त कर दिया. वेद समस्त ज्ञान के स्रोत हैं, और उन्हें पहली बार भगवान के सर्वोच्च व्यक्तित्व की दया से ब्रह्मा के सामने प्रकट किया गया था, जबकि ब्रह्मा भौतिक संसार की पुनर्रचना के बारे में विचार कर रहे थे. भगवान के प्रति अपनी आध्यात्मिक सेवा के प्रभाव से ब्रह्मा शक्तिशाली हैं, और यदि वह संयोग से भक्ति सेवा के महान मार्ग से विचलित हो जाए तो भगवान हमेशा अपने भक्त को क्षमा करने के लिए तैयार रहते हैं. श्रीमद्-भागवतम् (11.5.42) इसकी पुष्टि इस प्रकार करता है:

स्व-पाद-मूलम भजतः प्रियस्य त्यक्तवन्य-भावस्य हरिः पारेषः
विक्रम याच चोत्पत्तितम कथन-चिद्धुनोति सर्वम् हृदि सन्विष्टः

“कोई भी व्यक्ति जो भगवान के चरण कमलो में, प्रभु की पारलौकिक प्रेममयी सेवा में सौ प्रतिशत लगा हुआ है, वह भगवान् हरि के व्यक्तित्व को बहुत प्रिय है, और भक्त के हृदय में स्थित होने के कारण, भगवान, संयोगवश किए गए सभी प्रकार के पापों को क्षमा कर देते हैं.” कभी भी ऐसी आशा नहीं की गई थी कि ब्रह्मा जैसा महान व्यक्तित्व कभी अपनी बेटी के साथ यौन-संबंध के बारे में विचार कर सकता है. ब्रम्हा द्वारा दर्शाया गया उदाहरण केवल यह बताता है कि भौतिक प्रकृति का बल इतना अधिक होता है कि वह ब्रम्हा सहित किसी पर भी प्रभाव डाल सकता है. ब्रम्हा को भगवान की दया से थोड़े दंड के साथ क्षमा कर दिया गया, लेकिन भगवान की कृपा से महान ब्रम्हा के रूप में उनकी प्रतिष्ठा की क्षति नहीं हुई.

उनके पिछले शरीर में, जो अलौकिक थी, यौन जीवन के प्रति आकर्षण पर प्रतिबंध था, और इसलिए ब्रम्हा को यौन कर्म से जुड़ने के लिए एक अन्य शरीर को स्वीकारना पड़ा. इस प्रकार उन्होंने खुद को सृजन के विष्य में व्यस्त कर लिया. उनका पिछला शरीर कोहरे में परिवर्तित हो गया.

ओ कुरुओं के पुत्र, जब ब्रम्हा ने देखा कि महान क्षमता वाले ऋषियों की उपस्थिति के बावजूद जनसंख्या में कोई उल्लेखनीय वृद्धि नहीं हो रही थी, तो वे जनसंख्या बढ़ाने की विधि के बारे में गंभीरता से विचार करने लगे.

ब्रम्हा ने विचार किया: आह, यह आश्चर्यजनक है कि मेरे चारों ओर व्याप्त होने के बावजूद, समस्त ब्रह्मांड में अभी भी जनसंख्या अपर्याप्त है. इस दुर्भाग्य का कोई और कारण नहीं है बल्कि नियति है.जब वे इस प्रकार चिंतन में लीन थे और अलौकिक शक्ति का अवलोकन कर रहे थे, उनके शरीर से दो अन्य रूप उत्पन्न हुए. उन्हें अभी भी ब्रह्मा के शरीर के रूप में माना जाता है. ब्रम्हा के शरीर से दो शरीर बाहर आए. एक शरीर में मूँछें थीं और दूसरे शरीर में स्तन थे. उनकी उत्पत्ति के स्रोत को कोई नहीं समझा सकता, और इसीलिए आज तक भी उन्हें कायम्, या ब्रम्हा के शरीर, के रूप में जाना जाता है, उनके पुत्र या पुत्री के रूप में किसी भी संकेत के बिना.

नये अलग हुए दोनों शरीरों ने यौन संबंध बनाया. जिनमें से, जिसका रूप पुरुष था मनु कहलाए जिनका नाम स्वयंभुव था, और स्त्री सतरूपा, महात्मा मनु की रानी के रूप में जानी गईं. तत्पश्चात, भोग रत होकर, उन्होंने धीरे-धीरे एक के बाद एक पीढ़ियों की संख्या में वृद्धि की. ओ भरत पुत्र, कालांतर में मनु से सतरूपा को पाँच संतानें हुईं–दो पुत्र, प्रियव्रत और उत्तानपाद, और तीन पुत्रियाँ, अकुति, देवाहुति और प्रसूति. पिता, मनु ने अपनी पहली पुत्री, अकुति को ऋषि रुचि को दे दिया, बीच वाली पुत्री, देवाहुति को, ऋषि कर्दम को, और सबसे छोटी, प्रसूति को दक्ष को दे दिया. उनके माध्यम से, सारे संसार में जनसंख्या उत्पन्न हुई.

इसलिए, ब्रम्हा को सभी प्राणियों का पितामह के रूप में जाना जाता है, और ब्रम्हा के पिता होने के कारण भगवान के व्यक्तित्व को, सभी प्राणियों के प्रपितामह के रूप में जाना जाता है. इसकी पुष्टि भागवद्-गीता (11.39) में निम्न रूप से की गई है:

वायुर् यमो अग्निर् वरुणः सशंकाः प्रजापतिस् त्वम प्रपितामहश्च
नमो नमस ते स्तु सहर्ष-कृत्वः पुनश्च भुयोपि नमो नमस्ते

“आप ही वायु के स्वामी, परण न्याय यम, अग्नि, और वर्षा के स्वामी हैं. आप ही चंद्र हैं और आप प्रपितामह हैं. इसलिए मैं आपको बार-बार सम्मानजनक प्रणाम प्रस्तुत करता हूं.”

स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), श्रीमद् भागवतम्, तीसरा सर्ग, अध्याय 12- पाठ 28 से 30, 32 से 34, 48 से 57.

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