प्रकट विश्व का विलयन दो प्रकार से होता है. प्रत्येक 4,320,000,000 सौर वर्षों के अंत में, जब ब्रम्हा, किसी एक विशिष्ट ब्रम्हांड के स्वामी, सो जाते हैं, तो एक प्रलय होता है. और भगवान ब्रम्हा के जीवन के अंत में, जो ब्रम्हा की सौ वर्ष की आयु की समाप्ति पर, हमारी गणना के अनुसार 8,640,000,000 x 30 x 12 x 100 सौर वर्षों की समाप्ति पर, संमस्त ब्रम्हांड का संपूर्ण नाश हो जाता है, और दोनों अवधियों में महत्-तत्व कहलाने वाली भौतिक ऊर्जा और जीव-तत्व कहलाने वाली अत्यल्प ऊर्जा दोनों परम भगवान के व्यक्तित्व में समाहित हो जाती हैं. जीव तब तक भगवान के शरीर में सोते रहते हैं जब तक कि भौतिक संसार की रचना फिर से नहीं की जाती, और भौतिक उत्पत्ति के निर्माण, पालन और विनाश की यही विधि है. भौतिक रचना पर भगवान द्वारा चलायमान भौतिक प्रकृति के तीन रूपों के संपर्क से प्रभावित होती है, और इसलिए यहाँ कहा गया है कि भगवान भौतिक प्रकृति के रूपों के गति में आने से पहले अस्तित्वमान थे. श्रुति-मंत्र में कहा गया है कि केवल, परम भगवान, विष्णु ही ब्रम्हांड रचना के पहले अस्तित्वमान थे, और कोई भी ब्रम्हा, शिव या अन्य देवता नहीं थे. विष्णु का अर्थ महा-विष्णु है, जो समुद्र पर लेटे हुए हैं. उनके श्वसन मात्र से सभी ब्रम्हांडों के बीज उत्पन्न होते हैं और प्रत्येक ब्रम्हांड में असंख्य ग्रहों के साथ-साथ धीरे-धीरे विशालकाय रूपों में विकसित होते हैं. ब्रम्हांडों के बीज विशालका रूपों में वैसे ही विकसित होते हैं जैसे वट वृक्ष के बीज असंख्य वट वृक्षों में विकसित हो जाते हैं.

यह महा-विष्णु भगवान श्री कृष्ण का परिपूर्ण रूप है, जिनका उल्लेख ब्रम्ह-संहिता में इस प्रकार मिलता है: “मैं भगवान के मूल व्यक्तित्व गोविंद के प्रति अपना सादर अभिवादन प्रस्तुत करता हूँ, जिनके परिपूर्ण भाग महा-विष्णु हैं. सभी ब्रम्हा, ब्रम्हांडों के प्रमुख, उनकी अलौकिक काया के रोमछिद्रों से ब्रम्हांडों की उत्पत्ति के बाद से केवल उनके उच्छ्वास की अवधि तक ही जीवित रहते हैं.” (ब्रम्हसंहिता 5.58) अतएव गोविंद, या भगवान कृष्ण ही महा-विष्णु के भी कारक हैं. इस वैदिक सत्य के बारे में बातें करने वाली स्त्रियों ने ऐसा आधिकारिक सूत्रों से अवश्य ही सुना होगा. निश्चित ही कोई आधिकारिक सूत्र ही वह एकमात्र साधन होता है जिससे अलौकिक विषय वस्तु के बारे में ज्ञान हो सके. इसका कोई विकल्प नहीं है. महा-विष्णु के शरीर में जीवों का विलय ब्रम्हा के सौ वर्ष समाप्त होने पर स्वतः ही होता है. लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि जीवों की व्यक्तिगत पहचान खो जाती है. पहचान बनी रहती है, और जैसे ही भगवान की सर्वोच्च इच्छा से दोबारा रचना होती है, सभी प्रसुप्त, निष्क्रिय जीव उनके पिछले जीवन पक्षों की निरंतरता में उनकी गतिविधियाँ करने के लिए स्वतंत्र छोड़ दिए जाते हैं. इसे सुप्तोत्थित न्याय कहते हैं, या निद्रा से जागना और अपने संबंधित कर्तव्य में फिर से रत हो जाना. जब कोई पुरुष रात्रि में सोता है, वह स्वयं को भूल जाता है, कि वह क्या है, उसका कर्तव्य क्या है और अपनी जागृत अवस्था का सब कुछ भूल जाता है. लेकिन जैसे ही वह निद्रा से जागता है, उसे वह सब याद आ जाता है जो उसे करना है और इस प्रकार वह स्वयं को अपनी निर्दिष्ट गतिविधियों में फिर से रत कर लेता है. विनाश की अवधि के दौरान जीव भी महा-विष्णु के शरीर में विलीन रहते हैं, लेकिन जैसे ही अगली रचना होती है वे अपने अधूरे कार्य पूरे करने के लिए जाग जाते हैं. इसकी पुष्टि भगवद्-गीता (8.18-20) में भी की गई है. भगवान रचनात्मक ऊर्जा के कार्यरत होने से पहले अस्तित्वमान थे. भगवान भौतिक ऊर्जा का उत्पाद नहीं हैं. उनका शरीर पूर्णतया आध्यात्मित है, और उनके शरीर और स्वयं उनमें कोई अंतर नहीं है. रचना से पहले भगवान अपने निवास में स्थित थे, जो कि परम और एकमात्र है.

स्रोत:अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, पहला सर्ग, अध्याय 10 – पाठ 21

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